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आशंसा
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आसीनम् हैं, अग्नि से उत्पन्न आवेग में धूम आदि के कारण व्याकुलता होती है, राजपलायन में शस्त्र और हाथी आदि की तैयारी होती है, हाथी आदि के उत्पात से उत्पन्न आवेग में स्तम्भ, कम्प आदि और वायुजन्य आवेग में धूलि आदि से व्याकुलता होती है। इष्ट की प्राप्ति से होने वाले आवेग में हर्ष तथा अनिष्ट की प्राप्ति से होने वाले आवेग में शोक होते हैं। आदि। भरत ने यह भी कहा है कि उत्तम और मध्यम कोटि के पात्रों का आवेग स्थिरता से तथा मीच कोटि के पात्रों का आवेग उपसर्पण आदि से अभिनीत करना चाहिए। यथा-अर्घ्यमय॑मिति वादिनं नृपं सोऽनपेक्ष्य भरताग्रजो यतः। क्षत्रकोपदहनार्चिषं ततः सन्दधे दृशमुदग्रतारकम्।। इस पद्य में परशुराम के आने पर अपने परिजनों से 'अर्घ्यम् अर्घ्यम्' इस प्रकार कहते हुए राजा दशरथ की सम्भ्रमात्मक स्थिति का वर्णन किया गया है। (3/150) ___ आशंसा-एक नाट्यालङ्कार। आशा करने को आशंसा कहते हैं-आशंसनं स्यादाशंसा। यथा, माधव की मालती के दर्शन की आशा में यह उक्ति -तत्पश्येयमनङ्गमङ्गलगृहं भूयोऽपि तस्या मुखम्। (6/220)
आशंसा-शिल्पक का एक अङ्ग। किसी दुष्प्राप्य वस्तु को पाने की इच्छा आशंसा कही जाती है। (6/295) ___ आशी:-एक नाट्यालङ्कार। इष्ट जनों के आशीर्वाद को आशी: कहते हैं-आशीरिष्टजनाशंसा। यथा अ.शा. में कण्व का शकुन्तला को ययातेरिव0 इत्यादि आशीर्वाद। (6/208)
आश्रयः-एक नाट्यालङ्कार। अधिक उत्कृट गुणयुक्त कार्य के हेतु का ग्रहण करना आश्रय कहा जाता है-ग्रहणं गुणवत्कार्यहेतोराश्रय उच्यते। यथा, विभीषण के द्वारा राम का आश्रय ग्रहण करना। (6/214)
आश्वासः-शिल्पक का एक अङ्ग। (6/295)
आसीनम्-एक लास्याङ्ग। शोक और चिन्ता से युक्त, विना शृङ्गार किये कोई नायिका जब बैठकर विना किसी वाद्य के गाती है तो उसे आसीन कहते हैं-निखिलातोद्यरहितं शोकचिन्तान्विताऽबला। सुप्रसारितगात्रं यदासीनासीनमेव च।। (6/244)