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असौष्ठवम्
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आकाशभाषितम्
मनो हि मानिनाम्।। यहाँ श्रीकृष्ण के सम्मान को सहन न करते हुए शिशुपाल का वर्णन है । (3/175)
असौष्ठवम्-प्रवासविप्रलम्भ में काम की प्रथम दशा । प्रिय के अन्य देश में चले जाने पर नायिका शृङ्गारादि में प्रवृत्त नहीं होती, अत: उसके अङ्गों में मलिनता रहती है । यह असौष्ठवनामक काम की दशा है - असौष्ठवं मलापत्ति: । (3/212)
अस्थानयुक्तता - एक काव्यदोष। जो शब्द जहाँ नहीं प्रयुक्त होने चाहिएँ वहाँ उनका प्रयोग अस्थानयुक्तता है । यथा - आज्ञाशक्रशिखामणिप्रणयिनी शास्त्राणि चक्षुर्नवं भक्तिर्भूतपतौ पिनाकिनि पदं लङ्केति दिव्या पुरी । उत्पत्तिद्रुहिणान्वये च तदहो नेदृग्वरो लभ्यते, स्याच्चेदेष न रावणः क्व नु पुनः सर्वत्र सर्वे गुणाः । । बा. रा. में जनक के प्रति शतानन्द की इस उक्ति में 'स्याच्चेदेष न रावणः' पर ही वाक्य समाप्त हो जाता है। इसके बाद का अंश अस्थान में प्रयुक्त है क्योंकि इससे रावण की उपेक्षणीयता कम हो जाती है। यह अर्थदोष है । ( 7/5)
अस्थानस्थपदता - एक काव्यदोष । अनुचित स्थान में किसी पद को रखने से अस्थानस्थपदत्व दोष होता है। यथा - तीर्थे तदीये गजसेतुबन्धात् प्रतीपगामुत्तरतोऽस्य गङ्गाम् । अयत्नबालव्यजनीबभूवुर्हंसा नभोलङ्घनलोलपक्षाः ।। यहाँ ' तदीये' में 'तत्' पद से गङ्गा का परामर्श होता है, अतः उसे इससे पूर्व आ जाना चाहिए। यथा च हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः । यहाँ 'संशृणुते' के साथ नञ् का सम्बन्ध है, अतः नञ् उसी के पूर्व रहना चाहिए । यह वाक्यदोष है। (7/4)
अस्थानस्थसमासता- एक काव्यदोष । अनुचित स्थान में समास करने को अस्थानस्थसमासता कहते हैं । यथा - अद्यापि स्तनशैलदुर्गविषमे सीमन्तिनीनां हृदि, स्थातुं वाञ्छति मान एष घिगिति क्रोधादिवालोहितः। प्रोद्यद्दूरतरप्रसारितकरः कर्षत्यसौ तत्क्षणात् फुल्लत्कैरवकोषनिस्सरदलि श्रेणीकृपाणं शशी । । यहाँ पूर्वार्ध में क्रोधपूर्ण चन्द्रमा की उक्ति है परन्तु वहाँ समास नहीं किया गया जबकि उत्तरार्ध में कवि की उक्ति में कठोरताद्योतक दीर्घ समास है । यह वाक्यदोष है । (7/4 )
आकाशभाषितम्-नाट्य में किसी पात्र के द्वारा दूसरे पात्र के विना