________________
अलङ्कारः
अवपातनम्
नामक दोष होता है। यथा- - इन्दुर्विभाति कर्पूरगौरैर्धवलयन्करैः । जगन्मा कुरु तन्वङ्गि मानं पादानते प्रिये ।। इस पद्य में 'जगत्' पद पूर्वार्ध में पढ़ा जाना चाहिए। यह वाक्यदोष है । (7/4)
22
अलङ्कारः--काव्य का उत्कर्षाधायक तत्त्व । अलङ्कार शब्द और अर्थ के माध्यम से रस का उत्कर्ष करते हुए काव्य का उपकार करते हैं। इसका लक्षण है- शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत् ।। अङ्गदादि जिस प्रकार शरीर की शोभा का अतिशय करते हुए शरीरी का उपकार करते हैं, उसी प्रकार अनुप्रासोपमादि शब्दार्थ के माध्यम से काव्यसर्वस्वभूत रसभावादि को उपकृत करते हैं। गुण और रीतियों को भी काव्य के उत्कर्षक बताया गया है परन्तु गुण रस में ही अवस्थित होते हैं तथा स्थित होने पर अवश्य साक्षात् रस का उपकार करते हैं परन्तु अलङ्कार शब्द और अर्थ के धर्म हैं, रस के नहीं। अतएव ये परम्परा से शब्दार्थ के माध्यम से रस का उपकार करते हैं। इसके अतिरिक्त गुण काव्य के नित्य धर्म हैं जबकि अलङ्कारों की स्थिति काव्य में अनिवार्य नहीं है । मम्मट ने कहा है--अनलङ्कृती पुनः क्वापि अर्थात् काव्यगत शब्द और अर्थ कभी-2 अनलङ्ङ्कृत भी होते हैं। रीति भी काव्यशोभा की उत्कर्षक है तथा काव्य के आत्मभूत रसादि की उपकारक होती है परन्तु वह पदों की सङ्घटना मात्र है, अतः उसकी स्थिति काव्य के अङ्गसंस्थान की तरह है जबकि अलङ्कार शब्द और अर्थरूप काव्यशरीर की शोभा के वर्धक अङ्गदादि आभूषणों के समान हैं।
ये शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार और उभयालङ्कार के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। शब्द और अर्थ के रूप में विभाजन का आधार अन्वयव्यतिरेक है । जहाँ शब्द की परिवृत्ति कर देने पर भी अलङ्कारत्व अक्षुण्ण रहे वहाँ अर्थालङ्कार तथा जहाँ शब्द में परिवर्तन करने से अलङ्कारता नष्ट हो जाये वहाँ शब्दालङ्कार होता है । ( 10/1)
अवपातनम् - आरभटी वृत्ति का एक अङ्ग । प्रवेश, त्रास, निष्क्रमण, हर्ष और विद्रव की उत्पत्ति को अवपातन कहते हैं- प्रवेशत्रासनिष्क्रान्तिहर्षविद्रवसम्भवः। अवपातनमित्युक्तम् . ॥ यथा, कृत्यरावण के षष्ठाङ्क में खड्गहस्त पुरुष का प्रसङ्ग । (6/159)