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________________ 21 अर्थालङ्कारः अर्धान्तरैकपदत्वम् स्मरकिङ्कराः।। तथा, विललाप स वाष्पगदगदं सहजामप्यपहाय धीरताम्। अतितप्तमयोऽपि मार्दवं भजते कैव कथा शरीरिणाम्।। इन पद्यों में मुक्तों के इस अवस्था को प्राप्त होने तथा अतितप्त होने पर लोहे के पिघल जाने से अन्यों का सुगमतया वशीभूत हो जाना तधा मृदु हो जाना अर्थापन्न है। श्लेष से युक्त होने पर यह अलङ्कार अधिक चमत्कारक होता है। (10/108) __ अर्थालङ्कारः-अलङ्कार का एक भेद। जहाँ शब्द का परिर्वतन कर देने पर भी अलङ्कार नष्ट न हो, वहाँ अर्थालङ्कार होता है। सा.द. में सत्तर से अधिक अर्थालङ्कारों का विवेचन है। ____ अर्थोपक्षेपक:-रूपक में सूच्य वस्तु को सूचित करने का प्रकार। जो युद्धादि की कथा अङ्कों में प्रदर्शित नहीं की जा सकती परन्तु उसे बतलाना आवश्यक है, ऐसी दो दिन से लेकर एक वर्ष पर्यन्त घटित होने वाली तथा इसके अतिरिक्त भी कोई अन्य कथा, जो अतिविस्तृत हो, अर्थोपक्षेपक के द्वारा सूचित की जा सकती है। इसके अतिरिक्त जो कार्य दिन के अवसान में सम्पाद्य हो तथा दिन में उसका प्रयोग उपपन्न न हो सके, उसे अङ्कच्छेद करके अर्थोपक्षेपक के द्वारा सूचित करना चाहिए-अङ्केष्वदर्शनीया या वक्तव्यैव च सम्मता। या च स्याद्वर्षपर्यन्तं कथा दिनद्वयादिजा। अन्या च विस्तरा सूच्या सार्थोपक्षेपकैर्बुधैः।। दिनावसाने कार्यं यद्दिनेनैवोपपद्यते। अर्थोपक्षेपकैर्वाच्यमङ्कच्छेदं विधाय यत्।। जो कथावस्तु एक वर्ष से अधिक है, उसे एक वर्ष से कम की बना देना चाहिए। इसका निर्देश स्वयं भरतमुनि के द्वारा दिया गया है। आचार्य भरत का कथन है कि-अङ्कच्छेदे कार्य मासकृतं वर्षसञ्चितं वापि। तत्सर्वं कर्त्तव्यं वर्षादूर्ध्वं न तु कदाचित्।। इस प्रकार श्रीरामचन्द्र के चौदह वर्ष के वनवास आदि की घटना को भी रूपक में वर्ष, मास, दिन, प्रहर आदि में ही प्रदर्शित किया जाता है। अर्थोपक्षेपक पाँच प्रकार का होता है-विष्कम्भक, प्रवेशक, चूलिका, अङ्कावतार, अङ्कमुख। (6/33-36) अर्धान्तरैकपदत्वम्-एक काव्यदोष। छन्द में दो चरणों की एक इकाई होती है। यदि कोई एक पद दूसरे अर्धभाग में चला जाये तो अर्धान्तरैकपदत्व
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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