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अर्थान्तरन्यासः
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अर्थापत्तिः
तत्स्यादर्थविशेषणम्।। यथा, अ.शा. में राजा के प्रति शार्ङ्गरव का कथन -आः कथमिदं नाम । किमिदमुपन्यस्तमिति । ननु भवानेव नितरां लोकवृत्तान्तनिष्णातः । सतीमपि ज्ञातिकुलैकसंश्रयां, जनोऽन्यथा भर्तृमतीं विशङ्कते । अतः समीपे परिणेतुरिष्यते, प्रियाऽप्रिया वा प्रमदा स्वबन्धुभि: ।। (6/227)
अर्थान्तरन्यासः- एक अर्थालङ्कार । सामान्य का विशेष से, विशेष का सामान्य से कार्य का कारण से तथा कारण का कार्य से साधर्म्य अथवा वैधर्म्य के द्वारा यदि समर्थन किया जाये तो अर्थान्तरन्यास अलङ्कार होता है - सामान्यं वा विशेषेण, विशेषस्तेन वा यदि । कार्यं च कारणेनेदं कार्येण च समर्थ्यते। साधर्म्येणेतरेणार्थान्तरन्यासोऽष्टधा ततः । इसके यही पूर्वोक्त आठ प्रकार हैं। यथा- बृहत्सहाय: कार्यान्तं क्षोदीयानपि गच्छति । सम्भूयाम्भोधिमभ्येति महानद्या नगापगा ।। इस श्लोक में पूर्वार्ध में उक्त सामान्य कथन का उत्तरार्ध में उक्त विशेष कथन से समर्थन किया गया है । ( 10/80)
अर्थापत्तिः - एक नाट्यलक्षण । किसी एक अर्थ के कथन से जहाँ अन्य अर्थ की प्रतीति हो, उसे अर्थापत्ति कहते हैं- अर्थापत्तिर्यदन्योर्थोऽर्थान्तरोक्तेः प्रतीयते । यथा - d. सं. में कर्ण के द्वारा दुर्योधन को यह कहने पर कि द्रोणाचार्य अश्वत्थामा को राजा बनाना चाहते हैं, दुर्योधन उसे साधुवाद देकर, दत्त्वाऽभयं सोऽतिरथो वध्यमानं किरीटिना । सिन्धुराजमुपेक्षेत नैवं चेत्कथमन्यथा । ।, इस पद्य से द्रोण के जयद्रथ को न बचा पाने की घटना को अन्यथा व्याख्यायित करते हैं। (6/196)
अर्थापत्तिः - एक अर्थालङ्कार । दण्डापूपिका न्याय से अर्थान्तर की प्राप्ति अर्थापत्ति अलङ्कार है- दण्डापूपिकयान्यार्थागमोऽर्थापत्तिरिष्यते । दण्डापूपिका से अभिप्राय है कि मूषक ने यदि दण्ड खा लिया है तो उसके साथ लगे हुए पूए भी अवश्य खा लिये होंगे अर्थात् यदि कठिन कार्य सिद्ध हो गया है तो सुगम कार्य भी अवश्य सिद्ध हो गया होगा । इस प्रकार की प्रतीति अर्थापत्ति है। इसमें कहीं प्राकरणिक ( प्रकृत) अर्थ से अप्राकरणिक ( अप्रकृत) अर्थ की प्रतीति होती है तो कहीं अप्राकरणिक ( अप्रकृत) अर्थ से प्राकरणिक ( प्रकृत) अर्थ की। इनके उदाहरण क्रमश: इस प्रकार हैं- हारोऽयं हरिणाक्षीणां लुठति स्तनमण्डले । मुक्तानामप्यवस्थेयं के वयं