________________
अभूताहरणम्
19
अर्थविशेषणम्
अभूताहरणम् - गर्भसन्धि का एक अङ्ग । कपटयुक्त वचन को अभूताहरण कहते हैं - व्याजाश्रयं वाक्यमभूताहरणम् । यथा वे.सं. में युधिष्ठिर ने 'अश्वत्थामा हतः' इतना वाक्य तो स्पष्ट कहा परन्तु 'गजः' इतना धीरे से। इससे द्रोणाचार्य ने शस्त्र और नेत्रजल दोनों को साथ - 2 ही छोड़ा। यहाँ युधिष्ठिर का वचन 'अभूताहरण' नामक सन्ध्यङ्ग है। (6/96)
अमतपरार्थत्वम् - एक काव्यदोष । जहाँ कोई अनिष्ट अर्थान्तर प्रतीत होता हो, वहाँ अमतपरार्थत्व नामक दोष होता है । यथा - राममन्मथशरेण ताडिता दुःसहेन हृदयेन निशाचरी । गन्धवद्रुधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसतिं जगाम सा ।। रामरूपी कामदेव के बाण से ताडित वह राक्षसी ( ताडका ) दु:सह हृदय के साथ गन्धयुक्त रक्तरूपी चन्दन से उपलिप्त होकर जीवितेश (यमराज) के निवास पर चली गयी । यहाँ प्रकृत सन्दर्भ बीभत्स रस का है, उसमें अनिष्ट शृङ्गार की प्रतीति हो रही है। अतः यहाँ अमतपरार्थत्व दोष है। यह वाक्यदोष है । (7/4)
अमर्षः - एक व्यभिचारीभाव । निन्दा, आक्षेप, अपमानादि से उत्पन्न चित्त का अभिनिवेश अमर्ष (क्रोध) कहा जाता है । आँखें लाल हो जाना, शिर में कम्प उत्पन्न होना, भ्रुकुटि का तन जाना तथा तर्जना आदि इसके अनुभाव हैं - निन्दाक्षेपापमानादेरमर्षोऽभिनिविष्टता । नेत्ररागशिरःकम्पभ्रूभङ्गोतर्जनादिकृत् ॥ यथा- प्रायश्चित्तं चरिष्यामि पूज्यानां वो व्यतिक्रमात् । न त्वेवं दूषयिष्यामि शस्त्रग्रहमहाव्रतम् । । इस पद्य में परशुराम के अमर्षभाव का वर्णन हुआ है। (3/163)
अरुचि:-प्रवासविप्रलम्भ में काम की पञ्चम दशा । सब वस्तुओं से वैराग्य हो जाना, जब कुछ भी खाद्य अथवा दृश्य अच्छा न लगे तो अरुचि नामक कामदशा होती है - अरुचिर्वस्तुवैराग्यम् । (3/212)
अर्थप्रकृति :- नाट्यवस्तु के उपादान । नाट्य के फल के साधन को अर्थप्रकृति कहते हैं - अर्थप्रकृतयः प्रयोजनसिद्धिहेतवः । इसके पाँच भेद हैं - बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य। ये पाँच वस्तुत: कथावस्तु के उपादान कारण हैं। (6/46)
अर्थविशेषणम् - एक नाट्यालङ्कार। किसी के द्वारा कही गयी एक बात का अनेक प्रकार से उपालम्भ के रूप में कथन करना अर्थविशेषण कहा जाता है - उक्तस्यार्थस्य यत्तु स्यादुत्कीर्त्तनमनेकधा । उपालम्भस्वरूपेण