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अवलगितम्
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अवाचकः
अवलगितम्-वीथ्यङ्ग। प्रस्तावना का एक भेद। जहाँ एक प्रयोग में समावेश करके किसी पात्र के प्रवेश रूप अन्य कार्य को सिद्ध किया जाये उसे अवलगित कहते हैं-यत्रैकत्र समावेशात्कार्यमन्यत्प्रसाध्यते। प्रयोगे खलु तज्ज्ञेयं नाम्नावलगितं बुधैः।। यथा, अ.शा. में सूत्रधार नटी की प्रशंसा करता हुआ-तवास्मि गीतरागेण हारिणा प्रसभं हृतः। एष राजेव दुष्यन्तः सारङ्गेणातिरंहसा।। इस पद्य का प्रयोग करता है तथा इसी के साथ राजा दुष्यन्त का रङ्गमञ्च पर प्रवेश हो जाता है। (6/22)
अवस्यन्दितम्-वीथ्यङ्ग। अपनी सहज उक्ति का अन्यथा व्याख्यान अवस्यन्दित कहा जाता है-व्याख्यानं स्वरसोक्तस्यान्यथावस्यन्दितं भवेत्। इसका उदाहरण छलितराम नामक नाटक का वह प्रसङ्ग है जहाँ सीता लव से 'जात! स खलु युवयोः पिता।' अपने इस स्वाभाविक वाक्य को छुपाती हुई 'मा अन्यथा शङ्केथाम्। न खलु युवयोरेव सकलाया अपि पृथिव्या इति', इस प्रकार अर्थान्तर कर देती है। (6/271)
अवहसितम्-हास्य का एक भेद। जहाँ नेत्रविकास, अधर-स्फुरण, दाँतों के विलक्षित होने और मधुर स्वर के साथ-2 कन्धे और शिर में कुछ-कुछ कम्पन भी प्रतीत हो उसे अवहसित कहते हैं-सांसशिर:कम्पनमवहसितम्। यह मध्यम प्रकृति के लोगों का हास्य है। (3/221) ___ अवहित्त्था-एक व्यभिचारीभाव। भय, गौरव, लज्जा आदि के कारण हर्षादि के आकार को छुपाना अवहित्था कहलाता है। इसमें किसी अन्य काम में लग जाना, कुछ अन्य बात करने लगना, इधर-उधर देखना आदि होता है-भयगौरवलज्जादेहर्षाद्याकारगुप्तिरवहित्त्था। व्यापारान्तरसक्त्यन्यथा- भाषणविलोकनादिकरी। यथा-एवं वादिनि देवर्षों पार्वे पितुरधोमुखी। लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती।। कु.स. के इस पद्य में विवाह की चर्चा के समय समीपस्थित पार्वती की अवहित्त्था का वर्णन है। (3/165)
अवहित्त्था-शिल्पक का एक अङ्ग। (6/295)
अवाचक:-एक काव्यदोष। जो शब्द उस अर्थ का वाचक नहीं है उसमें उसका प्रयोग होने पर अवाचक दोष होता है। यथा 'गीतेषु कर्णमादत्ते।' यहाँ 'कान देना' इस प्रकार देने के अर्थ में आपूर्वक । दा का प्रयोग है जबकि 'आ' उपसर्ग लगने पर इसका अर्थ 'लेना' होता है, अत: यह शब्द इस