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स्वाधीनभर्तृका
हर्षः स्वाधीनमर्तृका-नायिका का एक भेद। रतिगुण से आकृष्ट प्रिय जिसका सङ्ग न छोड़े, विचित्र प्रकार के विभ्रमों (कामकेलियों) में आसक्त वह नायिका स्वाधीनभर्तृका कही जाती है-कान्तो रतिगुणाकृष्टो न जहाति यदन्तिकम्। विचित्रविभ्रमासक्ता सा स्यात्स्वाधीनभर्तृका।। यथा-अस्माकं सखि वाससी न रुचिरे ग्रैवेयकं नोज्ज्वलं, नो वक्रा गतिरुद्धतं न हसितं नैवास्ति कश्चिन्मदः। किन्त्वन्येऽपि जना वदन्ति सुभगोऽप्यस्याः प्रियो नान्यतो, दृष्टिं निक्षिपतीति विश्वमियता मन्यामहे दुःस्थितम्।। यह नायक नायिका में विशेष विभ्रम न होने पर भी उस पर आसक्त है। (3/88)
स्वेदः-एक सात्त्विक अनुभाव। रति, धूप, श्रमादि के कारण शरीर से निकलने वाले जल को स्वेद कहते हैं-वपुर्जलोद्गमः स्वेदो रतिधर्मश्रमादिभिः। (3/146)
हतवृत्तता-एक काव्यदोष। (1) लक्षणानुसारी होने पर भी जो सुनने में ठीक न लगे, (2) जो रस के अनुकूल न हो तथा (3) जिनके अन्त में ऐसा लघु हो जो गुरुभाव को प्राप्त नहीं हो सकता, वहाँ हतवृत्त नामक दोष होता हैं इसके उदाहरण क्रमशः इस प्रकार हैं-(1) हन्त सततमेतस्या हृदयं भिन्ते मनोभवः कुटिलः। (2) अयि मयि मानिनि मा कुरु मानम्। यह छन्द केवल हास्य रस के वर्णन के लिए ही उपयुक्त है, मानापनोदन जैस कार्यों में इसका प्रयोग दोषावह है। (3) विकसितसहकारभारहारि परिमल एष समागतो वसन्तः। यहाँ प्रथम पाद का अन्तिम वर्ण 'हारि' लघु है जो कथमपि गुरु नहीं हो सकता क्योंकि प्रायः द्वितीय और चतुर्थ पाद का अन्तिम लघु ही विकल्प से गुरु हो सकता है। विषम पादों का अन्तिम लघु केवल वसन्ततिलकादि छन्दों में ही गुरु होता है। यह वाक्यदोष है। (7/4)
हर्षः-एक व्यभिचारीभाव। इष्ट की प्राप्ति होने पर मन का प्रसन्न हो जाना हर्ष कहा जाता है। इसमें आँसु आना और स्वर का गद्गद आदि हो जाना होता है-हर्षस्त्विष्टावाप्तेर्मनः प्रसादोऽश्रुगद्गदकरः। यथा-समीक्ष्य पुत्रस्य चिरात् पिता मुखं निधानकुम्भस्य यथैव दुर्गतः। मुदा शरीरे प्रबभूव नात्मनः पयोधिरिन्दूदयमूर्च्छितो यथा। यहाँ पुत्र का मुख देखकर प्रसन्न हो रहे दिलीप का हर्षभाव वर्णित है। (3/174)