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स्थितपाठ्यम् 220
स्मृतिः स्थितपाठ्यम्-एक लास्याङ्ग। काम से सन्तप्त नायिका जब बैठकर प्राकृत में पाठ करती है तो उसे स्थितपाठ्य कहते हैं -स्थितपाठ्यं तदुच्यते। मदनोत्तापिता यत्र पठति प्राकृतं स्थिता। आचार्य अभिनवगुप्त का कथन है कि सकामा नायिका यहाँ उपलक्षणमात्र है। क्रोधोन्मत्त व्यक्ति भी यदि प्राकृत की रचना का पाठ करे तो यह भी स्थितपाठ्य नामक लास्याङ्ग है-उपलक्षणं चैतत्। क्रोधोद्भ्रान्तस्यापि प्राकृतपठनं स्थितपाठ्यमिति। (6/243)
स्पृहा-एक नाट्यालङ्कार। अत्यन्त रमणीयता के कारण वस्तु की आकांक्षा को स्पृहा कहते हैं-आकांक्षा रमणीयत्वाद् वस्तुनो या स्पृहा तु सा। यथा अ.शा. में शकुन्तला का अधरपान करते हुए राजा की यह उक्ति-चारुणा स्फुरितेनायमपरिक्षतकोमलः। पिपासतो ममानुज्ञां ददातीव प्रियाधरः।। (यह पद्य अनेक संस्करणों में नहीं मिलता। इसका स्थान तीसरे अङ्क में नेपथ्योक्ति "चक्रवाकवधूः आमन्त्रयस्व सहचरम्। उपस्थिता रजनी"। से पूर्व है।) (6/216)
__ स्मरणम्-एक अर्थालङ्कार। सदृश अनुभव से किसी पूर्वानुभूत वस्तु की स्मृति का वर्णन स्मरणालङ्कार होता है-सदृशानुभवाद् वस्तुस्मृतिः स्मरणमुच्यते। यथा-अरविन्दमिदं वीक्ष्य खेलत्खञ्जनमञ्जुलम्। स्मरामि वदनं तस्याश्चारुचञ्चललोचनम्।। स्मृति नामक सात्त्विक भाव के प्रसङ्ग में उदाहृत मयि सकपटम्० इत्यादि पद्य में वर्णित स्मरण सदृश वस्तु की स्मृति से उत्पन्न नहीं हुआ, अत: वहाँ यह अलङ्कार नहीं है। इस प्रसङ्ग में आचार्य विश्वनाथ ने राघवानन्द महापात्र नामक आचार्य का भी उल्लेख किया है जो विसदृश वस्तु के अनुभव से उत्पन्न होने वाली स्मृति में भी स्मरण अलङ्कार मानते हैं। इस सम्बन्ध में उन्हीं के द्वारा निर्मित पद्य को उदाहृत किया गया है-शिरीषमृद्वी गिरिषु प्रपेदे, यदा यदा दुःखशतानि सीता। तदा तदास्याः सदनेषु सौख्यलक्षाणि दध्यौ गलदश्रु रामः।। (10/40)
स्मितम्-हास्य का एक भेद। जब नेत्रों में कुछ विकास हो और ओष्ठ स्फुरित हों, उसे स्मित कहते हैं-ईषद्विकासिनयनं स्मितं स्यात्स्पन्दिताधरम्। यह उत्तम प्रकृति के लोगों का हास्य है। (3/221)
स्मृति:-पूर्वराग में काम की तृतीय दशा। किसी अन्य सदृश वस्तु