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संक्षिप्तिः
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संलापकम् संक्षिप्तिः-आरभटी वृत्ति का एक अङ्ग। शिल्प अथवा किसी अन्य कारण से संक्षिप्त वस्तुरचना को संक्षिप्ति कहते हैं। एक नायक की निवृत्ति में दूसरे नायक अथवा नायक के किसी एक धर्म की निवृत्ति होकर उसमें दूसरे धर्म की स्थापना होने पर भी संक्षिप्ति होती. है-संक्षिप्तवस्तुरचना शिल्पैरितरथापि वा। संक्षिप्तिः स्यान्निवृत्तौ च नेतुर्नेत्रन्तरग्रहः।। काष्ठ के हाथी से उदयन का पकड़ा जाना, बाली के स्थान पर सुग्रीव का राज्यारोहण तथा परशुराम में औद्धत्य की निवृत्ति होकर शान्ति की स्थापना इसके उदाहरण हैं। (6/158)
संक्षेपः-एक नाट्यलक्षण। थोड़े में ही अपने आप को समर्पित कर देना संक्षेप कहा जाता है- संक्षेपो यत्तु संक्षेपादात्मान्यार्थे प्रयुज्यते। यथा च.क. नाटिका में राजा का-प्रिये! अङ्गानि खेदयसि किं शिरीषकुसुमपरिपेलवानि मुधा। अयमीहितकुसुमानां सम्पादयिता तवास्ति दासजनः।। आदि कथन के द्वारा अपने को समर्पित करना। (6/201)
सङ्ग्रह:-गर्भसन्धि का एक अङ्ग। साम और दान से सम्पन्न अर्थ सङ्ग्रह कहा जाता है-सङ्ग्रहः पुनः सामदानार्थसम्पन्नः। यथा, र.ना. में राजा विदूषक को "साधु वयस्य! इदं ते पारितोषिकम्" कहकर कटक प्रदान करता है। (6/101)
संलापः-सात्वती वृत्ति का एक अङ्ग। अनेक भावों की आश्रयभूत गम्भीर उक्ति संलाप कही जाती है-संलापः स्याद्गभीरोक्तिर्नानाभावसमाश्रया। यथा वी.च. में राम और परशुराम के मध्य संवाद में राम की "अयं स किल सपरिवारकार्तिकेयविजयावर्जितेन भगवता नीललोहितेन परिवत्सरसहस्रान्तेवासिने तुभ्यं प्रसादीकृतः परशुः"। यह उक्ति। (6/153)
संलापकम्-उपरूपक का एक भेद। संलापक तीन अथवा चार अङ्कों का उपरूपक है। इसमें नगरविरोध, छल, सङ्ग्राम तथा विद्रव वर्णित होते हैं। भारती और कैशिकी वृत्ति का प्रयोग नहीं किया जाता। इसका नायक पाखण्डी होता है तथा शृङ्गार और करुण के अतिरिक्त कोई रस प्रधान होता है-संलापकेऽङ्काश्चत्वारास्त्रयो वा नायकः पुनः। पाषण्डः स्याद्रस्तत्र शृङ्गारकरुणेतरः। भवेयुः पुरसंरोधच्छलसङ्ग्रामविद्रवाः। न तत्र वृत्तिर्भवति