________________
213
संशयः
साङ्गरूपकम् भारती न च कैशिकी। इसका उदाहरण मायाकापालिकम् है। (6/292)
संशयः-एक नाट्यलक्षण। किसी वाक्य में जब अज्ञात वस्तु के विषय में अनिश्चय को अभिव्यक्त किया जाता है तो वह संशय नामक लक्षण होता है-संशयोऽज्ञाततत्त्वस्य वाक्ये स्याद्यदनिश्चयः। यथा, य.वि. का यह पद्य--इयं स्वर्गादिनाथस्य लक्ष्मीः किं यक्षकन्यका। किं चास्य विषयस्यैव देवता किमु पार्वती।। (6/176)
संसृष्टि:-एक अर्थालङ्कार। जहाँ एकाधिक अलङ्कार परस्पर निरपेक्ष होकर स्थित हों वहाँ संसृष्टि अलङ्कार होता है-मिथोऽनपेक्षयैतेषां स्थितिः संसृष्टिरुच्यते। यथा-देवः पायादपायान्नः स्मरेन्दीवरलोचनः। संसारध्वान्तविध्वंसहसः कंसनिषूदनः।। यहाँ 'पायादपाया' में यमक तथा श्लोक के उत्तरार्ध में अनुप्रास है, अतः शब्दालङ्कारों की संसृष्टि है। द्वितीय पाद में उपमा तथा उत्तरार्ध में रूपक होने के कारण अर्थालङ्कारों की भी संसृष्टि है। (10/127)
संहारः-भाणिका का एक अङ्ग। कार्य के समापन को संहार कहते हैं-संहार इति च प्राहुर्यत्कार्यस्य समापनम्। (6/300)
साकांक्षता-एक काव्यदोष। जहाँ वाक्य में प्रयुक्त पदों में आकांक्षा पूर्ण रूप से निवृत्त न हो पाये वहाँ साकांक्षता दोष होता है। यथा-ऐशस्य धनुषो भङ्ग क्षत्रस्य च समुन्नतिम्। स्त्रीरत्नं च कथं नाम मृष्यते भार्गवोऽधुना।। यहाँ 'स्त्रीरत्नम्' के साथ 'अपेक्षितुम्' पद की आकांक्षा बनी ही रहती है। यह अर्थदोष है। (7/5)
साङ्गरूपकम्-रूपक का एक भेद। यदि अङ्गी के समस्त अङ्गों का रूपण किया जाए तो साङ्गरूपक होता है-अङ्गिनो यदि साङ्गस्य रूपणं साङ्गमेव तत्। इसके दो प्रकार है-समस्तवस्तुविषय तथा एकदेशविवर्ति । सभी आरोप्य पदार्थ जब साक्षात् शब्द से बोधित हों तो समस्तवस्तुविषय तथा यदि कुछ शब्दतः उक्त न हों तो वह एकदेशविवर्ति होता है। यथा-रावणावग्रहक्लान्तमिति वागमृतेन सः। अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरोदधे।। यह प्रथम उपभेद का तथा--लावण्यमधुभिः पूर्णमास्यमस्या विकस्वरम्। लोकलोचनरोलम्बकदम्बैः कैर्न पीयते।। यह द्वितीय उपभेद का