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सम्भ्रमजन्यप्रवास
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सहोक्तिः के विप्रलम्भ के अनन्तर वर्णित होने के कारण यह भी चार प्रकार का माना जा सकता है क्योंकि विप्रलम्भ के विना सम्भोग पुष्टि को प्राप्त नहीं करता। जिस प्रकार वस्त्रादि को रंगने से पूर्व उन्हें कषायित कर लिया जाता है उसी प्रकार सम्भोग से पूर्व विप्रलम्भ का वर्णन होता है- न विना विप्रलम्भेन सम्भोगः पुष्टिमश्नुते। कषायिते हि वस्त्रादौ भूयारागो विवर्धते।। (3/215-17)
सम्भ्रमबन्यप्रवास:-प्रवासविप्रलम्भ का एक प्रकार। देवताओं, मनुष्यों अथवा दिशाओं में उत्पन्न उत्पातादि से सम्भ्रमजन्य विप्रलम्भ उत्पन्न होता है। वि.उ. में पुरुरवा और उर्वशी का विप्रलम्भ इसी प्रकार का है। (3/210)
सहचरभिन्नत्वम्-एक काव्यदोष। उत्कृष्ट और निकृष्ट पदार्थों का एक ही क्रिया में अन्वय कर देना सहचरभिन्नत्व है। यथा-सज्जनो दुर्गतौ मग्नः, कामिनी गलितस्तनी। खलः पूज्यः समज्यायां तापाय मम चेतसः।। यहाँ सज्जन और कामिनी का एक स्थान पर अन्वय तो ठीक है परन्तु उनके साथ खल का उल्लेख अशोभन है। यह अर्थदोष है। (7/5)
सहोक्तिः -एक अर्थालङ्कार। सह शब्दार्थ के बल से जहाँ एक पद दो अर्थों का वाचक हो वहाँ सहोक्ति अलङ्कार होता है परन्तु उसके मूल में अतिशयोक्ति अवश्य रहनी चाहिए-सहार्थस्य बलादेकं यत्र स्याद्वाचकं द्वयोः। सा सहोक्तिर्मूलभूतातिशयोक्तिर्यदा भवेत्। यथा-सहाधरदलेनास्या यौवने रागभाक् प्रियः।
सहोक्ति का अतिशयोक्तिमूलक होना आवश्यक है। लक्ष्मणेन समं रामः काननं गहनं ययौ, यह पंक्ति अशियोक्तिमूलक न होने के कारण ही सहोक्ति भी नहीं है। यह अतिशयोक्ति भी अभेदाध्यवसायमूला अथवा कार्यकारण में पौर्वापर्यविपर्ययमूलक होती है। अभेदाध्यवसाय में भी यह श्लेषमूलक अथवा अश्लेषमूलक हो सकती है। यह मालारूप भी हो सकती है, तद्यथा-सह कुमुदकदम्बैः काममुल्लासयन्तः, सह घनतिमिरौधैधैर्यमुत्सारयन्तः। सह सरसिजषण्डैः स्वान्तमामीलयन्तः, प्रतिदिशममृतांशोरंशवः सञ्चरन्ति।। यह आवश्यक नहीं कि यहाँ 'सह' शब्द का साक्षात् प्रयोग ही हो, उसके अर्थ की विवक्षा अवश्य होनी चाहिए। (10/72)