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________________ 205 सन्ध्यङ्गमु सन्धिः- रूपक में कार्यावस्था और अर्थप्रकृति को मिलाने वाला तत्त्व । आचार्य भरत ने पाँच अर्थप्रकृतियों तथा पाँच कार्यावस्थाओं के मेल से पाँच सन्धियों की कल्पना की है। पाँच कार्यावस्थाओं के सम्बन्ध से इतिवृत्त के पाँच विभाग होने पर क्रमश: पाँच सन्धियाँ होती हैं। इसका शास्त्रीय लक्षण आचार्य विश्वनाथ ने दशरूपक से ग्रहण किया है- अन्तरैकार्थसम्बन्धः सन्धिरेकान्वये सति । अर्थात् एक प्रयोजन से अन्वित कथांशों का अवान्तर प्रयोजन के साथ सम्बन्ध सन्धि कहा जाता है - एकेन प्रयोजनेनान्वितानां कथांशानामवान्तरैकप्रयोजनसम्बन्धः सन्धिः । सन्धि के पाँच भेद मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण हैं । ( 6/61) सन्धिः सन्धिः - निर्वहणसन्धि का एक अङ्ग । मुखसन्धि में क्षिप्त बीज की पुनरुद्भावना को सन्धि कहते हैं - बीजोपगमनं सन्धिः । यथा वे.सं. में भीम का द्रौपदी के प्रति यह कथन - भवति ! यज्ञवेदिसम्भवे ! स्मरति भवती यन्मयोक्तम्–चञ्चद्भुजभ्रमितचण्डगदाभिघातः, सञ्चूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणपाणिरुत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि भीमः । । यहाँ निर्वहण सन्धि में आकर एक बार पुनः बीज की उद्भावना की गयी है। (6/124) सन्धिविश्लेषः - एक काव्यदोष । प्रगृह्य संज्ञा आदि के कारण किया हुआ सन्धिभङ्ग यदि बार-बार प्रयुक्त हो तो वह दोषावह होता है । छन्दोभङ्ग आदि के वारणार्थ तो यदि एक बार भी सन्धिभङ्ग हो जाये तो वह दोष ही है। यथा - दलिते उत्पले एते अक्षिणी अमलाङ्गि ते । यहाँ बार-बार प्रकृतिभाव हुआ है। तथा वासवाशामुखे भाति इन्दुश्चन्दनबिन्दुवत् । यहाँ छन्दोभङ्ग को रोकने के लिए भाति और इन्दु में सन्धि नहीं की गयी । यह वाक्यदोष है। (7/4) सन्ध्यङ्गम्-नाटकीय सन्धि के उपविभाग । नाट्यसन्धियों के विधायक होने के कारण उसके उपविभागों की संज्ञा सन्ध्यङ्ग है। मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श तथा निर्वहण इन पाँच सन्धियों के क्रमश: 12, 13, 12, 13, तथा 14 अङ्ग हैं। इस प्रकार इनकी कुल संख्य 64 है। इनमें से रस के अनुसार अन्य सन्धि के अङ्गों का अन्यत्र भी निवेश हो सकता है। रुद्रटादि के द्वारा
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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