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सन्ध्यङ्गमु
सन्धिः- रूपक में कार्यावस्था और अर्थप्रकृति को मिलाने वाला तत्त्व । आचार्य भरत ने पाँच अर्थप्रकृतियों तथा पाँच कार्यावस्थाओं के मेल से पाँच सन्धियों की कल्पना की है। पाँच कार्यावस्थाओं के सम्बन्ध से इतिवृत्त के पाँच विभाग होने पर क्रमश: पाँच सन्धियाँ होती हैं। इसका शास्त्रीय लक्षण आचार्य विश्वनाथ ने दशरूपक से ग्रहण किया है- अन्तरैकार्थसम्बन्धः सन्धिरेकान्वये सति । अर्थात् एक प्रयोजन से अन्वित कथांशों का अवान्तर प्रयोजन के साथ सम्बन्ध सन्धि कहा जाता है - एकेन प्रयोजनेनान्वितानां कथांशानामवान्तरैकप्रयोजनसम्बन्धः सन्धिः । सन्धि के पाँच भेद मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण हैं । ( 6/61)
सन्धिः
सन्धिः - निर्वहणसन्धि का एक अङ्ग । मुखसन्धि में क्षिप्त बीज की पुनरुद्भावना को सन्धि कहते हैं - बीजोपगमनं सन्धिः । यथा वे.सं. में भीम का द्रौपदी के प्रति यह कथन - भवति ! यज्ञवेदिसम्भवे ! स्मरति भवती यन्मयोक्तम्–चञ्चद्भुजभ्रमितचण्डगदाभिघातः, सञ्चूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणपाणिरुत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि भीमः । । यहाँ निर्वहण सन्धि में आकर एक बार पुनः बीज की उद्भावना की गयी है। (6/124)
सन्धिविश्लेषः - एक काव्यदोष । प्रगृह्य संज्ञा आदि के कारण किया हुआ सन्धिभङ्ग यदि बार-बार प्रयुक्त हो तो वह दोषावह होता है । छन्दोभङ्ग आदि के वारणार्थ तो यदि एक बार भी सन्धिभङ्ग हो जाये तो वह दोष ही है। यथा - दलिते उत्पले एते अक्षिणी अमलाङ्गि ते । यहाँ बार-बार प्रकृतिभाव हुआ है। तथा वासवाशामुखे भाति इन्दुश्चन्दनबिन्दुवत् । यहाँ छन्दोभङ्ग को रोकने के लिए भाति और इन्दु में सन्धि नहीं की गयी । यह वाक्यदोष है। (7/4)
सन्ध्यङ्गम्-नाटकीय सन्धि के उपविभाग । नाट्यसन्धियों के विधायक होने के कारण उसके उपविभागों की संज्ञा सन्ध्यङ्ग है। मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श तथा निर्वहण इन पाँच सन्धियों के क्रमश: 12, 13, 12, 13, तथा 14 अङ्ग हैं। इस प्रकार इनकी कुल संख्य 64 है। इनमें से रस के अनुसार अन्य सन्धि के अङ्गों का अन्यत्र भी निवेश हो सकता है। रुद्रटादि के द्वारा