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________________ सन्देशहारकः 204 सन्देहः कृत्वा कृपां कुरु। यहाँ 'वन्द्याम्' पद सन्दिग्ध है। इसका अर्थ 'बन्दीभूतायाम्' अथवा 'वन्दनीयाम्' भी हो सकता है। इसका कारण श्लेषादि में बकार और वकार का अभिन्नत्व है। यदि व्याजस्तुति में पर्यवसान हो तो यह गुण ही होता है। यह पददोष है। (7/3) सन्देशहारकः-दूत का एक प्रकार। जितना कहा जाये उतने ही सन्देश को यथावत् पहुँचा देने वाला सन्देशहारक होता है-यावद्भाषितसन्देशहार: सन्देशहारकः। (3/60) सन्देहः-शिल्पक का एक अङ्ग। (6/295) सन्देह:-एक अर्थालङ्कार। उपमेय में उपमान के कविप्रतिभाजन्य संशय को सन्देह कहते हैं-सन्देहः प्रकृतेऽन्यस्य संशयः प्रतिभोत्थितः। यह संशय यदि अन्त तक बना रहे तो शुद्ध सन्देह, यदि बीच-बीच में कुछ निश्चय सा भी होने लगे तो निश्चयगर्भ और यदि अन्त में सन्देह का निवारण हो जाये तो निश्चयान्त रूप से तीन प्रकार का होता है इनके उदाहरण क्रमशः इस प्रकार हैं-(1) किं तारुण्यतरोरियं रसभरोद्भिन्ना नवा वल्लरी, वेलाप्रोच्छलितस्य किं लहरिका लावण्यवारांनिधेः। उद्गाढ़ोत्कलिकावतां स्वसमयोपन्यासविम्भिणः, किं साक्षादुपदेशयष्टिरथवा देवस्य शृङ्गारिणः।। (2) अयं मार्तण्डः किं स खलु तुरगैः सप्तभिरितः, कृशानुः किं सर्वाः प्रसरति दिशो नैष नियतम्। कृतान्तः किं साक्षान्महिषवहनोऽसाविति पुनः, समालोक्याजौ त्वां विदधति विकल्पान् प्रतिभटाः।। (3) किं तावत्सरसि सरोजमेतदारात्, आहो स्विन्मुखमवभासते तरुण्याः। संशय्य क्षणमिति निश्चिकाय कश्चिद्, विव्वोकैर्बकसहवासिनां परोक्षैः।। "स्थाणुर्वा पुरुषो वा" इत्यादि सन्देह कविप्रतिभोत्त्थ न होने के कारण अलङ्कार नहीं हैं। मध्यं तव सरोजाक्षि, पयोधरभरादितम्। अस्ति नास्तीति सन्देहः, कस्य चित्ते न भासतः। इस पद्य में सन्देह न होकर अतिशयोक्ति अलङ्कार है क्योंकि सन्देह केवल वहीं होता है जब उपमेय में उपमान का संशय उत्पन्न हो जाये। इस पद्य में इस प्रकार की कोई बात नहीं है। (10/52)
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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