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अभवन्मतसम्बन्धः
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अभिधा इसके यही पाँच प्रकार हैं। पादाहतं यदुत्त्थाय मूर्धानमधिरोहति। स्वस्थादेवापमानेऽपि देहिनस्तद्वरं रजः।। कृष्ण के प्रति कही गयी बलभद्र की इस उक्ति में, 'हमसे धूलि भी अच्छी है,' यह विशेष प्रस्तुत है, जिसका 'अपमानेऽपि स्वस्थाद् देहिनः,' इस सामान्य से व्यञ्जन किया गया है। र.व. के प्रसिद्ध पद्य-सगियं यदि जीवितापहा हृदये किं निहिता न हन्ति माम्। विषमप्यमृतं क्वचिद्भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया।। यहाँ सामान्य व्यङ्ग्य है जो विष और अमृतरूप विशेष से अभिहित है।
समासोक्ति के समान यहाँ व्यवहार का आरोप आवश्यक है जो कि शब्दशक्तिमूलवस्तुध्वनि में नहीं होता। अतः यह उससे भिन्न है। उपमाध्वनि तथा समासोक्ति में अप्रस्तुत व्यङ्ग्य रहता है, यहाँ वाच्य भी। श्लेष में दोनों ही वाच्य रहते है, यहाँ एक व्यङ्ग्य रहता है। अतः यह इन सबसे भिन्न है। (10/77)
अभवन्मतसम्बन्धः-एक काव्यदोष। जहाँ वाक्य में प्रयुक्त पदों का परस्पर सम्बन्ध ही न बन सके, वहाँ अभवन्मतसम्बन्ध नामक काव्यदोष होता है। यथा-ईक्षसे यत्कटाक्षेण तदा धन्वी मनोभवः। इस पंक्ति में 'यत्' शब्द के साथ कालवाचक 'तदा' शब्द का अन्वय ही नहीं बनता। उसके स्थान पर 'चेत्' शब्द होना चाहिए। यह वाक्यदोष है। (7/4)
अभिधा-शब्द की एक शक्ति। सङ्केतित अर्थ का बोध कराने वाली शब्द की प्रथम शक्ति अभिधा कही जाती है-सङ्केतितार्थस्य बोधनादग्रिमाभिधा। यहाँ सङ्केतित का अर्थ 'मुख्य' है, अर्थात् इसके द्वारा शब्द के मुख्यार्थ का बोध होता है। बालक को सर्वप्रथम इसका ज्ञान आवापोद्वाप के द्वारा होता है। उत्तम वृद्ध के द्वारा मध्यम वृद्ध को उद्दिष्ट करके 'गामानय' ऐसा कहने पर बालक इस सम्पूर्ण पदसमूह का अर्थ 'सास्नादिमान् पदार्थविशेष का आनयन' ऐसा समझ लेता है। इसके अनन्तर 'गां बधान' तथा 'अश्वमानय' ऐसा सुनकर वह 'गो' पद का अर्थ सास्नादिमान् पदार्थविशेष, 'आनय' पद का अर्थ 'आनयन क्रिया' तथा इसी प्रकार 'अश्व' और 'बधान' पदों के सङ्केतित अर्थ का भी अवगम कर लेता है। एक शब्द के अनेकार्थक होने पर उसका एक निश्चित अर्थ में सङ्केतग्रह जिन साधनों से होता है, उनका