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अपुष्टत्वम्
अप्रस्तुतप्रशंसा वक्रोक्ति में दूसरे के कथन का अन्यथा अर्थ किया जाता है जबकि अपहृति में अपनी ही उक्ति के वास्तविक अभिप्राय का अपह्नव होता है। (10/55-56)
अपुष्टत्वम्-एक काव्यदोष। जहाँ कोई पदार्थ मुख्य अर्थ का उपकारी न हो वहाँ अपुष्टत्व दोष होता है। यथा-विलोक्य वितते व्योम्नि विधुं मुञ्च रुषं प्रिये। यहाँ वितत' पद का अर्थ मानत्याग रूप प्रधान अर्थ का उपकारी नहीं है। अधिकपदत्व में पदार्थ के अन्वय के साथ ही बाध का ज्ञान हो जाता है जबकि अपुष्टत्व में अन्वय के बाद बाध की प्रतीति होती है। यह अर्थदोष है। (7/5)
अप्रतीत:-एक काव्यदोष। जो किसी एकदेशमात्र में ही प्रसिद्ध हो उसे अप्रतीत दोष कहते हैं। यथा-योगेन दलिताशयः। यहाँ आशय' शब्द का अर्थ वासना (सुख-दुःख रूप फल देने के लिए जो अन्तःकरण में स्थित रहे, फलपाक के अनन्तर नष्ट हो जाये) केवल योगशास्त्र में ही प्रसिद्ध है परन्तु वक्ता और श्रोता यदि दोनों ज्ञाता हों तो यह गुणरूप ही होता है। यदि अपने आप से परामर्श अभिप्रेत हो तो भी अप्रतीत गुण हो जाता है। (7/3) ___ अप्रयुक्तता-एक काव्यदोष। व्याकरणकोशादि से सिद्ध होने पर भी कविसम्प्रदाय में अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग करना अप्रयुक्तत्व दोष है-अप्रयुक्तत्वं यथा प्रसिद्धावपि कविभिरनादृतत्वम्। यथा, पद्म शब्द 'वा पुंसि पद्मं नलिनम्' इस कोश के अनुसार पुल्लिङ्ग में प्रयुक्त हो सकता है तथापि यह शब्द नपुंसकलिङ्ग में ही प्रसिद्ध है। श्लेषादि में अप्रयुक्तता दोष नहीं है। (7/3)
अप्रस्तुतप्रशंसा-एक अर्थालङ्कार। अप्रस्तुत सामान्य से प्रस्तुत विशेष, अप्रस्तुत विशेष से प्रस्तुत सामान्य, अप्रस्तुत कार्य से प्रस्तुत कारण, अप्रस्तुत कारण से प्रस्तुत कार्य अथवा अप्रस्तुत समान वस्तु से प्रस्तुत समान वस्तु का व्यञ्जन होने पर अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार होता है। क्वचिद् विशेषः सामान्यात्सामान्यं वा विशेषतः। कार्यान्निमित्तं कार्यं च हेतोरथ समात्समम्।। अप्रस्तुतात्प्रस्तुतं चेद् गम्यते पञ्चधा ततः। अप्रस्तुतप्रशंसा स्यात् . . . . ।।