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अपह्नुतिः
अपस्मारः - एक व्यभिचारी भाव । चित्त की विक्षेपावस्था का नाम अपस्मार है जो भूतादि के प्रवेश से उत्पन्न होती है। इसमें पृथ्वी पर गिरना, कम्पन, पसीना आ जाना, मुख से झाग अथवा लार आदि आना होता है - मनः क्षेपस्त्वपस्मारो ग्रहाद्यावेशनादिजः । भूपातकम्पप्रस्वेदफेनलालादिकारकः ।। यथा - आश्लिष्टभूमिं रसितारमुच्चैर्लोलद्भुजाकारबृहत्तरङ्गम्। फेनायमानं पतिमापगानामसावपस्मारिणमाशशङ्के । इस पद्य में समुद्र को अपस्मारी पुरुष के समान वर्णित किया गया है। (3/159)
अपस्मारः
अपहसितम् - हास्य का एक भेद । जहाँ हँसते -2 आँख में पानी भी आ जाये उसे अपहसितं कहते हैं- अपहसितं साम्राक्षम् | यह नीच प्रकृति के लोगों का हास्य हैं। (3/221)
अपह्नुतिः - एक अर्थालङ्कार । उपमेय का प्रतिषेध करके उपमान की स्थापना अपह्नुति अलङ्कार है - प्रकृतं प्रतिषिध्यान्यस्थापनं स्यादपह्नुतिः । कभी निषेधपूर्वक स्थापना होती है तो कभी उपमान को आरोपित करके फिर निषेध किया जाता है। इस प्रकार इसके दो भेद निष्पन्न होते हैं। इन दोनों प्रकारों के उदाहरण क्रमश: इस प्रकार हैं- नेदं नभोमण्डलमम्बुराशिनैताश्च तारा नवफेनभङ्गाः। नायं शशी कुण्डलितः फणीन्द्रो नासौ कलङ्कः शयितो मुरारिः । । तथा, एतद्विभाति चरमाचलचूलचुम्बि हिण्डीरपिण्डरुचि शीतमरीचिबिम्बम् । उज्ज्वालितस्य रजनीं मदनानलस्य धूमं दधेत्प्रकटलाञ्छनकैतवेन ।।
अपह्नुति का आचार्य विश्वनाथ ने एक और भी लक्षण प्रस्तुत किया है। किसी गोपनीय बात को पहले प्रकट कर फिर उसे श्लेष अथवा किसी अन्य उपाय से अन्यथा कर दिया जाये, वहाँ भी अपह्नुति अलङ्कार होता है - गोपनीयं कमप्यर्थं द्योतयित्वा कथञ्चन। यदि श्लेषेणान्यथा वाऽन्यथयेत्साप्यपह्नुतिः।। तद्यथा-काले वारिधराणामपतितया नैव शक्यते स्थातुम् । उत्कण्ठितासि तरले, नहि नहि सखि, पिच्छिलः पन्था । । यहाँ 'अपतितया' पद में श्लेष का उपयोग करके अभिलषितार्थ को छुपाया गया है। कभी-2 श्लेष के विना भी सादृश्य में अभिप्राय सूचित करके फिर उसका अपह्नव कर दिया जाता है। यथा - इह पुरोनिलकम्पितविग्रहा मिलति का न वनस्पतिना लता । स्मरसि किं सखि कान्तरतोत्सवं नहि घनागमरीतिरुदाहृता ।।