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अभिधामूला व्यञ्जना
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अभिधामूला व्यञ्जना
उल्लेख इस कारिका में किया गया है - शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ।। इन साधनों से ज्ञात सङ्केतित अर्थ का बोध कराने वाली, किसी दूसरी शक्ति से अव्यवहित शब्द की शक्ति अभिधा कही जाती है। (2/7)
अभिधामूला व्यञ्जना - शाब्दीव्यञ्जना का एक भेद । संयोगादि अर्थनियामकों के द्वारा अनेकार्थक शब्द के एक अर्थ में नियन्त्रित हो जाने वह पर भी जिस शक्ति के द्वारा अन्य व्यङ्ग्य अर्थ का ज्ञान होता है, अभिधाश्रया व्यञ्जना कही जाती है- अनेकार्थस्य शब्दस्य संयोगाद्यैर्नियन्त्रिते । एकत्रार्थेऽन्यधीहेतुर्व्यञ्जना सभिधाश्रया । संयोगादि अर्थनियामकों का परिगणन इन कारिकाओं में किया गया है- संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता । अर्थः प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य संनिधिः । सामर्थ्य मौचिती देश: कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः । । इस कारिका में पठित 'स्वर' वेद में ही विशिष्ट प्रतीति कराने वाला होता है, अतः काव्य में उसकी उपयोगिता नहीं है। आचार्य भरत ने यद्यपि शृङ्गारादि के विषय में स्वरनियम का उल्लेख किया है परन्तु वहाँ ये केवल व्यङ्ग्यार्थ की विशेषता ही बताते हैं, अनेकार्थक शब्दों को एक अर्थ में नियन्त्रित करना इनका कार्य नहीं है। दूसरी ओर श्लेष के प्रकरण में 'काव्यमार्गे स्वरो न गण्यते' ऐसा विधान स्पष्ट रूप से किया गया है। कारिका में 'आदि' पद से 'एतावन्मात्रस्तनी' आदि स्थलों में कमलकोरक आकार वाली हस्तादि की चेष्टाओं का परिगणन किया जाता है।
इसका उदाहरण आचार्य विश्वनाथ के तातपाद द्वारा रचित यह पद्य है - दुर्गालङ्घितविग्रहो मनसिजं सम्मीलयंस्तेजसा, प्रोद्यद्राजकलो गृहीतगरिमा विष्वग्वृतो भोगिभिः। नक्षत्रेशकृतेक्षणो गिरिगुरौ गाढ़ां रुचिं धारयन्, गामाक्रम्य विभूतिभूषिततनू राजत्युमावल्लभः।। इस पद्य में उमादेवी के पति राजा भानुदेव की प्रशस्ति के साथ - 2 महादेव का स्तुतिपरक अर्थ भी श्लेष के द्वारा भासित होता है। प्रकरण के अनुसार पद्य में प्रयुक्त द्व्यर्थक पदों के उमादेवी के पति भानुदेव के प्रशस्तिपरक अर्थ में नियन्त्रित हो जाने पर उमा के पति महादेव रूप अर्थ व्यञ्जना ही के द्वारा बोधित होता है । अत: यह अभिधामूला व्यञ्जना का उदाहरण है। (2/21 )