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श्लेषः
श्लेष :
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वैसे ही हैं जैसे एक वृन्त पर दो फल लगे हों। इसका चमत्कार इन भिन्न प्रतीत होने वाले दो अर्थों पर ही निर्भर करता है, अतः अर्थ पर आश्रित होने के कारण यह अर्थालङ्कार है। इन आचार्यों के मत में अलङ्कार्य-अलङ्करणोपपत्ति आश्रय- आश्रयिभाव पर आधारित है परन्तु सिद्धान्ती को यह पक्ष मान्य नहीं है। इस मत में ध्वनि, गुणीभूतव्यङ्ग्य, दोष, गुण, अलङ्कार की शब्द अथवा अर्थ के रूप में व्यवस्थिति का आधार अन्वयव्यतिरेक है, अर्थात् जो अलङ्कारादि किसी शब्द के रहने पर रहे और उसके न रहने पर न रहे, वह शब्दगत और जो उसके पर्याय के रखने पर भी बना रहे वह अर्थगत होता है। अभङ्गश्लेष में शब्दपरिवृत्ति असह्य होती है। दूसरे, यहाँ शब्दविशेष ही वस्तुतः चमत्कार का हेतु है, इसलिए यह शब्दालङ्कार है। तीसरे, अभङ्गश्लेष के उदाहरण अन्धकक्षय० आदि में जो शब्द की अभिन्नता प्रदर्शित की गयी है उसका 'अर्थभेदेन शब्दभेदः' नियम से विरोध उपस्थित होता है, अतः वह स्वीकार्य नहीं है। और फिर केवल अर्थ के अनुसन्धान की अपेक्षा रखने के कारण ही कोई अर्थालङ्कार नहीं हो जाता क्योंकि इस तर्क से तो अनुप्रासादि भी अर्थगत हो जायेंगे क्योंकि रसापेक्षी होने के कारण अर्थसापेक्षता तो वहाँ भी अभीष्ट होती है । शब्द यदि एक ही प्रयत्न से उच्चरित हो तो भी अनिवार्यरूप से वह अर्थालङ्कार नहीं होता क्योंकि प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ० आदि उदाहरण में 'विधौ' शब्द के उच्चारण में अभिन्न प्रयत्न होने पर भी वह शब्दालङ्कार ही है। अर्थश्लेष तो वहाँ होता है जहाँ शब्द का परिवर्तन कर देने पर भी श्लेष बना रहता है। इसका उदाहरण 'स्तोकेनोन्नतिमायाति०' आदि पद्य है। यहाँ 'स्तोक' के स्थान पर 'स्वल्प' पद के रख देने पर भी अलङ्कार बना रहता है। (10/13-15)
श्लेषः- एक अर्थालङ्कार । स्वभाव से ही एकार्थक शब्दों के द्वारा अनेक अर्थों का कथन करना श्लेष है- शब्दैः स्वभावादेकार्थेः श्लेषोऽनेकार्थवाचनम्।' 'स्वभावादेकार्थै: ' पद से शब्दश्लेष तथा 'वाचनम्' पद से श्लेषध्वनि से इसका पार्थक्य द्योतित किया गया है। यथा- प्रवर्तयन्क्रियाः साध्वीर्मालिन्यं हरितां हरन् । महसा भूयसा दीप्तो विराजति विभाकर: । इस पद्य में 'विभाकर' शब्द रजा और सूर्य दोनों का वाचक है। ( 10/76)