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सङ्केतग्रहः
सङ्करः- एक अर्थालङ्कार । एकाधिक अलङ्कारों के अङ्गाङ्गिभाव के रूप में स्थित होने पर, एक ही आश्रय में स्थित होने पर अथवा एकाधिक अलङ्कारों के सन्देह की स्थिति में यह तीन प्रकार का सङ्कर होता है - अङ्गाङ्गित्वेऽलङ्कृतीनां तदूवदेकाश्रयस्थितौ । सन्दिग्धत्वे च भवति सङ्करस्त्रिविधः पुनः । । इन तीनों प्रकारों के उदाहरण क्रमश: इस प्रकार हैं- आकृष्टिवेगविगलद्भुजगेन्द्रभोगनिर्मोकपट्टपरिवेष्टनयाम्बुराशेः । मन्थव्यथाव्युपशमार्थमिवाशु यस्य मन्दाकिनी चिरमवेष्टत पादमूले। इस पद्य में निर्मोकपट्ट का अपह्नव करके उसमें मन्दाकिनी का आरोप किया गया है, अतः अपह्नुति है । मन्दाकिनी की जो पादों के समीप स्थिति है, वही चरणमूलवेष्टन है, अतः श्लेष है। वह श्लेष अतिशयोक्ति का अङ्ग है । वह अशियोक्ति 'मानों मन्मथ की व्यथा को दूर करने के लिए' इस प्रकार उत्प्रेक्षा का अङ्ग है। यह उत्प्रेक्षा समुद्र और मन्दाकिनी के माध्यम से नायकनायिका के व्यवहार को सूचित करती है, अतः समासोक्ति का अङ्ग है। इस प्रकार अनेक अलङ्कारों का अङ्गाङ्गिभाव होने के कारण यहाँ सङ्कर है। अनुरागवती सन्ध्या दिवसस्तत्पुरःसरः । अहो दैवगतिश्चित्रा तथापि न समागमः ।। इस पद्य में समासोक्ति विशेषोक्ति का अङ्ग है। ‘मुखचन्द्रं पश्यामि' यहाँ उपमा अथवा रूपक का सन्देह होता है । (10/128)
सङ्करः
सङ्कीर्णत्वम् - एक काव्यदोष । किसी दूसरे वाक्य के पद यदि दूसरे वाक्य में अनुप्रविष्ट हो जायें तो सङ्कीर्णत्व दोष होता है । यथा - चन्द्रं मुञ्च कुरङ्गाक्षि पश्य मानं नभोऽङ्गने । यहाँ 'नभोऽङ्गने चन्द्रं पश्य, मानं मुञ्च' इस प्रकार अन्वय बनता है। क्लिष्टत्व दोष एक ही वाक्य में होता है जबकि सङ्कीर्णत्व में एक वाक्य के पद दूसरे वाक्य में प्रविष्ट हो जाते हैं। यही इन दोनों में भेद है। यह वाक्यदोष है। (7/4)
सङ्केतग्रहः – सा. द. कार के अनुसार सङ्केतग्रह का विषय व्यक्ति की चार उपाधियाँ - जाति, गुण, द्रव्य और क्रिया हैं। इन्हीं में सङ्केतग्रह होता है, व्यक्ति में नहीं - सङ्केतो गृह्यते जातौ गुणद्रव्यक्रियासु च । व्यक्ति में सङ्केतग्रह मानने पर अनेक व्यक्तियों के लिए पृथक्-पृथक् अनन्त शक्तियों की कल्पना करनी पड़ती है और यदि एक व्यक्ति में सङ्केतग्रह हो जाने पर अन्य व्यक्तियों