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शृङ्गारः
शृङ्गारः प्रकार की साध्यवसाना, यह आठ प्रकार की लक्षणा सादृश्य से इतर किसी सम्बन्ध से युक्त हो तो शुद्धा लक्षणा होती है-सादृश्येतरसम्बन्धाः शुद्धास्ताः सकला अपि। इस प्रकार शुद्धा लक्षणा आठ प्रकार की होती है- (1) रूढिउपादापनसारोपाशुद्धा-अश्वः श्वेतो धावति। (2) रूढ़िलक्षणसारोपाशुद्धाकलिङ्गः पुरुषो युध्यते। (3) प्रयोजनउपादानसारोपाशुद्धा-एते कुन्ताः प्रविशन्ति। (4) प्रयोजनलक्षणसारोपाशुद्धा-आयुर्घतम्। (5) रूढ़िउपादानसाध्यवसानाशुद्धा-श्वेतो धावति। (6) रूढ़िलक्षणसाध्यवसानाशुद्धा-कलिङ्गः साहसिकः। (7) प्रयोजनउपादानसाध्यवसानाशुद्धा-कुन्ताः प्रविशन्ति। (8) प्रयोजनलक्षणसाध्यवसानाशुद्धा-गङ्गायां घोषः। (2/14)
शृङ्गारः-एक रस। शृङ्ग शब्द का अर्थ होता है काम का अङ्कुरित हो जाना। गत्यर्थ ऋ से अण् प्रत्यय होकर आर शब्द बनता है। इस प्रकार शृङ्गार का अर्थ होता है-कामभाव की प्राप्ति। यह शृङ्गार उत्तम कोटि के युवक व युवतियों का स्वभाव है-शृङ्ग हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः। उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृङ्गार इष्यते। इसका स्थायीभाव रति है परन्तु मात्र कामावस्था में जिस रति का अनुभव होता है, उसकी परिणति शृङ्गार नहीं है क्योंकि वह तो व्यभिचारीभाव है। युवक और युवति के चेतना के स्तर पर एक हो जाने को ही स्थायीभाव कहा जा सकता है, जब सम्भोग और वियोग दोनों ही अवस्थाओं में मिलन बना रहता है। इसका वर्ण श्याम है तथा देवता विष्णु। विष्णु को अभिनवगुप्त ने कामदेव माना है। परोढ़ा नायिका तथा सर्वथा अनुरागशून्य वेश्या को छोड़कर शेष नायिकायें तथा दक्षिण आदि नायक इसके आलम्बन होते हैं। चन्द्र, चन्दन, भ्रमरों का गुञ्जन आदि इसके उद्दीपन कहे जाते हैं। उग्रता, आलस्य, मरण और जुगुप्सा के अतिरिक्त निर्वेदादि उनतीस भाव इसके व्यभिचारीभाव हैं। भ्रूविक्षेप, कटाक्षादि इसके अनुभाव हैं-परोढ़ां वर्जयित्वात्र वेश्यां चाननुरागिणीम्। आलम्बनं नायिकाः स्युर्दक्षिणाद्याश्च नायकाः। चन्द्रचन्दनरोलम्बरुताद्युद्दीपनं मतम्। भ्रूविक्षेपकटाक्षादिरनुभावः प्रकीर्तितः। त्यक्त्वौग्र्यमरणालस्यजुगुप्सा व्यभिचारिणः। स्थायिभावो रतिः श्यामवर्णोऽयं विष्णुदैवतः।। यथा-शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्त्थाय किञ्चिच्छनैर्निद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वर्ण्य पत्युर्मुखम्। विस्रब्धं परिचुम्ब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थली, लज्जानम्रमुखी प्रियेण