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शमः 195
शान्तः देने पर अलङ्कार नष्ट हो जाये, वह शब्दालङ्कार होता है क्योंकि यहाँ अलङ्कार का सौन्दर्य किसी शब्दविशेष पर ही अवलम्बित होता है। सा.द. में इन शब्दालङ्कारों का उल्लेख किया गया है-अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, भाषासम, श्लेष, चित्र, प्रहेलिका (खण्डनपरक)।
शम:-शान्तरस का स्थायीभाव। इच्छाओं के समाप्त हो जाने तथा अन्तःकरण के पूर्ण विश्रान्त हो जाने पर प्राप्त होने वाला सुख शम कहा जाता है-शमो निरीहावस्थायां स्वात्मविश्रामजं सुखम्। (3/186)
शान्त:-एक रस। शम नामक स्थायीभाव जब विभावादि के द्वारा पुष्ट होकर अनुभूति का विषय बनता है तो शान्त नामक रस होता है। अनित्यत्व, दु:खमयत्वादि के रूप में संसार की असारता का ज्ञान अथवा परमात्मा का स्वरूप उसका आलम्बन तथा पुण्याश्रम, हरिक्षेत्र, तीर्थ, रम्य वन, महापुरुषों की सङ्गति आदि उद्दीपन होते हैं। रोमाञ्चादि इसके अनुभाव तथा निर्वेद, हर्ष, स्मृति, मति, भूतदया इसके व्यभिचारीभाव होते हैं। इसका वर्ण कुन्दपुष्प के समान तथा देवता श्रीनारायण हैं-शान्तः शमस्थायिभाव उत्तमप्रकृतिर्मतः। कुन्देन्दुधवलच्छायः श्रीनारायणदैवतः। अनित्यत्वादिनाशेषवस्तुनिःसारता तु या। परमात्मस्वरूपं वा तस्यालम्बनमिष्यते। पुण्याश्रमहरिक्षेत्रतीर्थरम्यवनादयः। महापुरुषसङ्गाद्यास्तस्योद्दीपनरूपिणः। रोमाञ्चाद्याश्चानुभावास्तथा स्युर्व्यभिचारिणः। निर्वेदहर्षस्मरणमतिर्भूतदयादयः।। यथा-रथ्यान्तश्चरतस्तथा धृतजरत्कन्यालवस्याध्वगैः। सत्रासं च सकौतुकं च सदयं दृष्टस्य तैर्नागरैः। निर्व्याजीकृतचित्सुधारसमुदा निद्रायमाणस्य मे। निःशङ्कः करटः कदा करपुटीभिक्षां विलुण्ठिष्यति।। इस पद्य में अशेषवस्तुनिःसारता आलम्बन, नागरों के द्वारा उक्त रूप में देखा जाना उद्दीपन, भिक्षार्थ भ्रमणादि अनुभाव तथा रोमाञ्च, हर्षादि व्यभिचारीभाव हैं।
शान्त के सर्वथा निरहङ्काररूप होने के कारण दयावीर आदि तथा देवादिविषया रति आदि में इसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता। जीमूतवाहन आदि में मलयवतीविषयक प्रेम विद्यमान रहता है, अन्त में वह विद्याधरों का साम्राज्य भी प्राप्त करता है, अतः उसका देहाभिमान पूर्ण रूप से शान्त