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व्रीडा
व्याहतत्वम् नहीं होती। स्त्रीपात्र अत्यल्प तथा पुरुष पात्र बहुत अधिक होते हैं। नायक प्रख्यात, धीरोद्धत, राजर्षि अथवा दिव्य कोटि का पात्र होता है। क्योंकि स्त्रीपात्रों की संख्या कम होती है, अत: कैशिकी वृत्ति का प्रयोग नहीं होता तथा हास्य, शृङ्गार एवं शान्त के अतिरिक्त कोई रस अङ्गी होता है-ख्यातेतिवृत्तो व्यायोगः स्वल्पस्त्रीजनसंयुतः। हीनो गर्भविमर्शाभ्यां नरैर्बहुभिराश्रितः। एकाङ्कश्च भवेदस्त्रीनिमित्तसमरोदयः। कैशिकीवृत्तिरहित: प्रख्यातस्तत्र नायकः। राजर्षिरथ दिव्यो वा भवेद्धीरोद्धतश्च सः। हास्यशृङ्गारशान्तेभ्य इतरेऽत्राङ्गिनो रसाः।। इसका उदाहरण सौगन्धिकाहरण है। (6/256)
व्याहतत्वम्-एक काव्यदोष। पहले किसी वस्तु का उत्कर्ष अथवा अपकर्ष दिखाकर फिर उसके विपरीत कथन करना व्याहत दोष है। यथा-हरन्ति हृदयं यूनां न नवेन्दुकलादयः। वीक्ष्यते यैरियं तन्वी लोकलोचनचन्द्रिका।। यहाँ पहले नूतन चन्द्रमा की कला का अपकर्ष द्योतित करके पुनः कामिनी में चन्द्रिकात्व का आरोप करके उसका उत्कर्ष बताया गया है। यह अर्थदोष है। (7/5) ___ व्याहारः-एक वीथ्यङ्ग। किसी अन्य का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए हास्य अथवा क्षोभकारक वाणी का प्रयोग व्याहार कहा जाता है-व्याहारो यत्परस्यार्थे हास्यक्षोभकरं वचः। यथा मा.अ. नाटक में नृत्य का प्रदर्शन करके जाती हुई मालविका को विदूषक उसे राजा को दिखाने के निमित्त हास्यकारक वचनों का प्रयोग करके कुछ समय रोक लेता है। (6/274)
व्रज्या-सजातीय पद्यों का एकत्र संनिवेश। कोश आदि में परस्पर निरपेक्ष सजातीय पद्यों का एक स्थान पर संनिवेश व्रज्या कहा जाता है-सजातीयानामेकत्र संनिवेशो व्रज्या। (6/309)
व्रीडा-एक व्यभिचारीभाव। दुराचार आदि अकार्य के करने से उत्पन्न होने वाला लज्जा का भाव व्रीडा है। इसमें मुख नीचा हो जाता है, इसीलिए इसे धृष्टता का अभावरूप कहा गया है-धाष्ाभावो व्रीडा वदनानमनादिकृद् दुराचारात्। यथा-मयि सकपटं किञ्चित्क्वापि प्रणीतविलोचने किमपि नयनं प्राप्ते तिर्यग्विजृम्भिततारकम्। स्मितमुपगतामाली दृष्ट्वा सलज्जमवाञ्चितं कुवलयदृशः स्मेरं स्मेरं स्मरामि तदाननम्।। (3/173)