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व्यभिचारीभावः
व्यभिचारीभावः उपमेय के आधिक्य तथा उपमान की न्यूनता का कारण यदि शब्द से कह दिया गया हो, न कहा गया हो, केवल उपमेय के आधिक्य का कारण कहा गया हो अथवा केवल उपमान के आधिक्य का कारण कहा गया हो, इस चार प्रकार के व्यतिरेक में उपमानोपमेयभाव का कथन कहीं शब्द से होता है, कहीं अर्थतः लभ्य होता है तो कहीं आक्षेप से गम्य होता है। इस प्रकार इसके बारह भेद बन जाते हैं जो श्लेष से युक्त अथवा रहित होने के कारण 24 प्रकार के हो जाते हैं। इतने ही भेद उपमान के आधिक्य तथा उपमेय की न्यूनता के कथन में भी होते हैं। इस प्रकार व्यतिरेक के कुल 48 भेद निष्पन्न होते हैं। (10/71) ।
व्यभिचारीभावः-रस का एक अङ्ग। जो विशेष रूप से अभिमुख होकर स्थायीभाव के प्रति सञ्चरण करें, वे व्यभिचारी कहे जाते हैं-विशेषादाभिमुख्येन चरणाद्व्यभिचारिणः। स्थायिन्युन्मग्ननिर्मग्नास्त्रयस्त्रिंशच्च तद्भिदाः।। ये चित्त के क्षणिक भाव हैं जो समुद्र में लहरों की तरह स्थायीभाव में आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं। ये रत्यादि स्थायीभाव, जो शृङ्गारादि के रूप में अनुभूति का विषय बनते हैं, के सहकारिकारण हैं।
आचार्य भरत के द्वारा प्रवर्तित परम्परा का पालन करते हुए विश्वनाथ ने भी इनकी संख्या 33 ही स्वीकार की है-निर्वेद, आवेग, दैन्य, श्रम, मद, जडता, उग्रता, मोह, विबोध, स्वप्न, अपस्मार, गर्व, मरण, अलसता, अमर्ष, निद्रा, अवहित्त्था, औत्सुक्य, उन्माद, शङ्का, स्मृति, मति, व्याधि, सन्त्रास, लज्जा, हर्ष, असूया, विषाद, धृति, चपलता, ग्लानि, चिन्ता और वितर्क।
यदि कोई स्थायीभाव भी किसी रस के बीच में उत्पन्न होकर लीन हो जाये तो वह भी वहाँ व्यभिचारीभाव हो जाता है। शृङ्गार का स्थायीभाव रति है परन्तु उसके मध्य ही यदि हास नामक स्थायीभाव उत्पन्न होकर विलीन हो जाये तो वह भी उस स्थान पर व्यभिचारी कहा जायेगा। निदर्शन के रूप में शृङ्गार और वीर में हास, वीर में क्रोध, शान्त में जुगुप्सा व्यभिचारित्व को प्राप्त हो सकते हैं। किसी कारण से किसी पात्र विशेष में स्थिर होकर भी उन्मादादि व्यभिचारीभाव स्थायी नहीं हो सकते क्योंकि ये किसी पात्र