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व्यतिरेकः
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व्यतिरेकः
पदों के अर्थों में व्यञ्जकत्व मानता है परन्तु कवि के कह देने मात्र से ही वह कान्त अधम नहीं हो जाता। अतः काव्यानुभूति के सन्दर्भ में अनुमान की कल्पना करना हास्यास्पद ही है।
इस प्रकार जब व्यङ्ग्यार्थ का अनुमान ही नहीं हो सकता तो अर्थापत्ति से उसका बोध्य होना तो स्वत: ही निरस्त हो जाता है क्योंकि अर्थापत्ति भी व्याप्तिज्ञान के आधार पर ही प्रवृत्त होती है।
वस्त्रविक्रयादि में तर्जनी को दिखाकर जो दशादि की संख्या को सूचित किया जाता है, व्यङ्ग्यार्थ को इस प्रकार से सूचित भी नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सूचनबुद्धि भी सङ्केतादि लौकिक प्रमाणों की अपेक्षा रखती है, अर्थात् इस प्रकार का सूचन वहीं होता है जहाँ पहले से ही लोक में सङ्केत प्रसिद्ध होता है, इस प्रकार यह भी एक प्रकार का अनुमान ही है।
संस्कारजन्य होने के कारण रसादि को स्मृति भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रत्यभिज्ञा भी संस्कारजन्य होती है, अतः यह हेतु भी अनैकान्तिक होने के कारण दूषित है।
दुर्गालङ्गित० इत्यादि पद्य में जो आचार्य महिमभट्ट ने व्यङ्ग्यार्थ का निषेध किया है वह गजनिमीलिका ही है क्योंकि उसका द्वितीय अर्थ अनुभवसिद्ध है और उसका अपलाप नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार व्यञ्जनानामक तुरीयवृत्ति को मानना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि रसादि की अनुभूति अनुभवसिद्ध है और उसका न तो अभिधा, लक्षणा अथवा तात्पर्या में अन्तर्भाव दिखाया जा सकता है और न ही अनुमान अथवा अर्थापत्ति प्रमाणों से वह बोध्य हो सकती है। विद्वानों ने इस तुर्यावृत्ति को व्यञ्जना का नाम दिया है।
व्यतिरेक:- एक अर्थालङ्कार । उपमेय के उपमान से आधिक्य अथवा न्यूनता के वर्णन में व्यतिरेक अलङ्कार होता है- आधिक्यमुपमेयस्योपमानान्न्यूनताथवा । व्यतिरेक:... ।। यथा - अकलङ्कं मुखं तस्या न कलङ्की विधुर्यथा ।