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विमर्शः
विरुद्धमतिकृत् विभ्रम कहलाता है-त्वरया हर्षरागादेर्दयितागमनादिषु। अस्थाने भूषणादीनां विन्यासो विभ्रमो मतः।। यथा-श्रुत्वाऽऽयान्तं बहिः कान्तमसमाप्तविभूषणा। भालेऽञ्जनं दृशोर्लाक्षा कपोले तिलकः कृतः।। यहाँ नायिका ने सम्भ्रमवश माथे पर अञ्जन, आँखों में महावर तथा कपोल पर तिलक लगा लिया है। (3/121)
विमर्श:-सन्धि का चतुर्थ भेद। इसमें मुख्यफलप्राप्ति का उपाय गर्भसन्धि की अपेक्षा कुछ अधिक उद्भिन्न परन्तु शापादि विघ्नों से युक्त होता है-यत्र मुख्यफलोपाय उद्भिन्नो गर्भतोऽधिकः। शापाद्यैः सान्तरायश्च स विमर्श इति स्मृतः।। अ.शा. के चतुर्थाङ्क में शापमोचन के समाधान का उपाय सम्भावित हो जाने पर भी अनसूया की चिन्ता से लेकर शकुन्तला के प्रत्यभिज्ञानपर्यन्त का कथानक अनेक विघ्नों से युक्त है। इसके तेरह अङ्ग हैं-अपवाद, सम्फेट, व्यवसाय, द्रव, द्युति, शक्ति, प्रसङ्ग, खेद, प्रतिषेध, विरोध, प्ररोचना, आदान तथा छादन। कुछ आचार्यों के अनुसार यहाँ अपवाद, शक्ति, व्यवसाय, प्ररोचना और आदान की प्रमुखता है। अन्य अङ्ग गौण हैं। (6/66)
विरहोत्कण्ठिता-नायिका का एक भेद। आने का निश्चय करके भी दैववश जिसका प्रिय न आ पाये, उसके न आने से खिन्न वह नायिका विरहोत्कण्ठिता कही जाती है-आगन्तुं कृतचित्तेऽपि दैवान्नायाति चेत्प्रियः। तदनागमदु:खात विरहोत्कण्ठिता तु सा।। यथा- किं रुद्धः प्रियया कदाचिदथवा सख्या ममोद्वेजितः, किं वा कारणगौरवं किमपि यन्नाद्यागतो वल्लभः। इत्यालोच्य मृगीदृशा करतले विन्यस्य वक्त्राम्बुजं, दीर्घं निश्वसितं चिरं च रुदितं क्षिप्ताश्च पुष्पम्रजः।। (3/99)
विरुदम्-गद्यपद्यमयी राजस्तुति। गद्य और पद्य से मिश्रित राजस्तुति विरुद नाम से कही जाती है-गद्यपद्यमयी राजस्तुतिविरुदमुच्यते। यथा-विरुदमणिमाला। (6/314)
विरुद्धमतिकृत्-एक काव्यदोष। विरुद्ध बुद्धि को उत्पन्न करने वाले शब्द विरुद्धमतिकृत् कहे जाते हैं। यथा-भूतयेऽस्तु भवानीशः। इस वाक्य से पार्वती का शिव के अतिरिक्त कोई अन्य पति प्रतीत होता है। यह पददोष समास में ही होता है। (7/3)