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वचनश्लेषः
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वर्णसंहारः
का उदाहरण है। उच्चारण की विशिष्ट प्रणाली को काकु कहते हैं। कभी-कभी ध्वनि के विकारमात्र इस काकु से ही समग्र अर्थ परिवर्तित हो जाता है-काले कोकिलवाचाले सहकारमनोहरे । कृतागसः परित्यागात्तस्याश्चेतो न दूयते ।। किसी सखी के द्वारा यहाँ निषेध अर्थ में प्रयुक्त नञ् दूसरी सखी के द्वारा विध्यर्थ में घटित कर लिया गया है। ( 10/11 )
वचनश्लेष :- श्लेषालङ्कार का एक भेद । जहाँ वचन के श्लिष्ट होने के कारण श्लेष की प्रतीति हो, यथा-किरणा हरिणाङ्कस्य दक्षिणश्च समीरणः। कान्तोत्सङ्गजुषां नूनं सर्व एव सुधाकिरः ।। इस पद्य में 'सुधाकिर: ' पद 'सुधां किरति' इस अर्थ में कॄ विक्षेपे से क्विबन्त शब्द का प्रथमा बहुवचन का तथा क प्रत्ययान्त 'सुधाकिर' शब्द का प्रथमा एकवचन का रूप है। ( 10/14 की वृत्ति)
वज्रम् - प्रतिमुखसन्धि का एक अङ्ग। निष्ठुर वचन को वज्र कहते हैं-प्रत्यक्षनिष्ठुरं वज्रम्। यथा र.ना. में सुसङ्गता की राजा के प्रति यह उक्ति-न केवलं त्वं समं चित्रफलकेन । तद्यावद्गत्वा देव्यै निवेदयिष्यामि। (6/92)
वर्णश्लेष :- श्लेषालङ्कार का एक भेद । जहाँ वर्ण के श्लिष्ट होने के कारण श्लेष की प्रतीति हो, यथा- प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता। अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न पतिष्यतः करसहस्रमपि।। यहाँ विधि और विधु शब्दों के अन्तिम वर्ण (इ तथा उ) सप्तमी एकवचन में औ ( विधौ ) के रूप में परिणत हो गये हैं। यह परिणति केवल प्रत्यय की ही नहीं है अपितु इसमें प्रकृति का अंश भी समाहित है, अतः यहाँ प्रत्ययश्लेष नहीं है । ( 10/14 की वृत्ति)
वर्णसंहारः- प्रतिमुखसन्धि का एक भेद । चारों वर्णों के समागम को वर्णसंहार कहते हैं- चातुर्वण्यपगमनं वर्णसंहार इष्यते । यथा म.च. के इस पद्य - परिषदियमृषीणामेष वीरो युधाजित्, सममृषिभिरमात्यैर्लोमपादश्च वृद्धः । अयमविरतयज्ञो ब्रह्मवादी पुराणः प्रभुरपि जनकानामद्रुहो याजकास्ते ।। में ऋषि, क्षत्रियादि सभी का मिलन हुआ है। आचार्य अभिनवगुप्त यहाँ वर्ण शब्द से पात्रों का ग्रहण करते हैं, अतः उनके अनुसार सभी पात्रों का मेल वर्णसंहार है। इसका उदाहरण र.ना. के द्वितीयाङ्क में 'अतोऽपि मे गुरुतर: