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लुप्तोपमा
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लप्तोपमा वार्त्तिक से), (3) उपमानभूत कर्ता से क्यङ् प्रत्यय करने पर (उपमाने कर्मणि च 3/4/45 सूत्र से), (4) उपमानभूत कर्म तथा (5) कर्ता से णमुल् प्रत्यय करने पर (उपमाने कर्मणि च 3/4/45 सूत्र से) होती है। (कलाप व्याकरण में क्यच्, क्या और णमुल की संज्ञा यिन्, आयि और णम् है।) इन पाँचों प्रकारों के उदाहरण क्रमशः इस श्लोक में निबद्ध हैं-अन्तःपुरीयसि रणेषु सुतीयसि त्वं पौरं जनं तव सदा रमणीयते श्री:। दृष्टः प्रियाभिरमृतद्युतिदर्शमिन्द्र सञ्चारमत्र भुवि सञ्चरसि क्षितीश।। इस प्रकार सामान्यधर्मलुप्तोपमा के दश भेद निष्पन्न होते हैं।
उपमानलुप्तोपमा वाक्य अथवा र मास में स्थिति के आधार पर दो प्रकार की हो सकती है। इस प्रकार के स्थलों में वस्तुतः उपमान के ज्ञान का अभाव होता है, उसकी सत्ता का ही सर्वथा निषेध नहीं होता। तस्या मुखेन सदृशं रम्यं नास्ते' यह वाक्यगत तथा 'न वा नयनतुल्यम्' यह समासगत उपमानलुप्ता है। इसके भी 'मुखं यथेदं' अथवा 'दृशमिव' इस प्रकार श्रौती
और आर्थी के रूप में दो पुनर्विभाग भी हो सकते हैं परन्तु ये परम्परा में मान्य नहीं हैं, अतः दो ही भेद किये गये हैं। ___औपम्यवाचक लुप्तोपमा समासगत अथवा क्विप् प्रत्ययगत दो प्रकार की हो सकती है। 'वदनं मृगशावाक्ष्याः सुधाकरमनोहरम्' यहाँ 'सुधाकर इव मनोहरम्' ऐसा विग्रहवाक्य है। समास 'उपमानानि सामान्यवचनैः' इस शास्त्र से होता है। 'गर्दभति श्रुतिपरुषं व्यक्तं निनदन्महात्मनां पुरतः' यहाँ गर्दभ शब्द से 'गर्दभ इवाचरति' इस अर्थ में सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विब्वा वक्तव्यः' इस वार्त्तिक से क्विप् प्रत्यय होता है। इस वाक्य में उपमेय की प्रतीति निनदन्' के कर्ता के रूप में होती है। साधारणधर्म और उपमान इन दोनों का लोप समासगत अथवा वाक्यगत दो प्रकार का हो सकता है। 'तस्या मुखेन सदृशं लोके नास्ते न वा नयनतुल्यम्' ये दोनों उदाहरण क्रमशः वाक्यगत और समासगत धर्मोपमानलुप्ता के बनते हैं। विधवति मुखाब्जमस्याः ' इस उदाहरण में 'विधुरिवाचरति' इस अर्थ में क्विप् प्रत्यय होकर उसका शास्त्रकृत लोप होता है। यहाँ मनोहरत्वरूप सामान्यधर्म का भी लोप है।
उपमेय के लुप्त होने की स्थिति में एक उपमा क्यच् प्रत्यय होने पर