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लीला
लुप्तोपमा लीला- नायिका का सात्त्विक अलङ्कार। प्रीति के अतिशय के कारण अङ्गों, वेष, अलङ्कारों तथा प्रेमपूर्ण वचनों से प्रिय के अनुकरण को 'लीला' कहते हैं--अङ्गैर्वेषैरलङ्कारैः प्रेमभिर्वचनैरपि। प्रीतिप्रयोजितैर्लीला प्रियस्यानुकृति विदुः। यथा-मृणालव्यालवलया वेणीबन्धकपर्दिनी। हरानुकारिणी पातु लीलया पार्वती जगत्।। यहाँ पार्वती कमलनाल का सर्प बनाकर तथा वेणी का जटाजूट बनाकर शिव का अनुकरण करती हुई वर्णित की गयी है। (3/114)
लुप्तविसर्गत्वम्-एक काव्यदोष। सर्वत्र विसर्गों का लोप होने से लुप्तविसर्ग नामक दोष होता है। यथा-गता निशा इमा बाले। यह वाक्यदोष है। (7/4)
लुप्तोपमा-उपमा का एक भेद। जहाँ उपमेय, उपमान, सामान्यधर्म और वाचकशब्द में से किन्हीं एक, दो अथवा तीन का लोप होलुप्ता सामान्यधर्मादेरेकस्य यदि वा द्वयोः। त्रयाणां वानुपादाने..।। इसके भी शब्दतः श्रुत अथवा अर्थानुसन्धान के अनन्तर बोध्य होने के कारण श्रौती और आर्थी ये दो रूप होते हैं-श्रौत्यार्थी सापि पूर्ववत्। सामान्य धर्म के लुप्त होने की स्थिति में क्योंकि 'तत्र तस्येव' सूत्र से तद्धित वति प्रत्यय की सम्भावना नहीं बनती अतः श्रौती लुप्तोपमा केवल समास और वाक्य में होती है। आर्थी लुप्तोपमा तद्धित, समास और वाक्य तीनों में स्थित होती है। इस प्रकार सामान्यधर्मलुप्ता उपमा के पाँच भेद बनते हैं। मुखमिन्दुर्यथा पाणिः पल्लवेन समः प्रिये। वाचः सुधा इवोष्ठस्ते बिम्बतुल्यो मनोऽश्मवत्।। इस श्लोक में ये पाँचों भेद उपलब्ध हो जाते हैं। 'मुखमिन्दुर्यथा' में वाक्यगत श्रौती सामान्यधर्मलुप्तोपमा तथा 'पाणिः पल्लवेन समः' में उपमा का वाक्यगत आर्थी सामान्यधर्मलुप्ता नामक भेद है। 'वाचः सुधा इव' में समासगतश्रौती सामान्यधर्मलुप्ता तथा 'ओष्ठस्ते बिम्बतुल्यः' में समासगत आर्थी समान्यधर्मलुप्तोपमा है। मनोऽश्मवत्' में तद्धितगत आर्थी सामान्यधर्मलुप्तोपमा नामक भेद बनता है। इसके अतिरिक्त पाँच प्रकार की सामान्यधर्मलुप्तोपमा (1) उपमानभूत कर्म से क्यच् प्रत्यय करने पर (उपमानादाचारे 3/1/10 सूत्र से), (2) उपमानभूत आधार से क्यच् प्रत्यय करने पर (अधिकरणाच्च