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________________ लक्षणा 157 लक्षणा लक्षणा - शब्द की एक शक्ति । अभिधा के द्वारा प्रतीयमान मुख्यार्थ का बाध होने पर रूढ़ि अथवा प्रयोजन के कारण उससे सम्बद्ध अन्य अर्थ जिसके द्वारा प्रतीत होता है, वह कल्पित शक्ति लक्षणा कही जाती है - मुख्यार्थबाधे तद्युक्तो ययाऽन्योऽर्थः प्रतीयते । रूढ़ेः प्रयोजनाद्वासौ लक्षणा शक्तिरर्पिता । । इस प्रकार लक्षणा का सर्वप्रथम तत्त्व मुख्यार्थ का बाध है। यह बाध पदार्थ का वाक्यार्थ में अन्वय न हो सकने के कारण होता है जबकि नवीन आचार्य अन्वयानुपपत्ति के स्थान पर तात्पर्यानुपपत्ति को लक्षणा का बीज मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' इत्यादि वाक्यों में अन्वय सम्बन्धी कोई अनुपपत्ति नहीं है बल्कि वक्ता का तात्पर्य उपपन्न नहीं हो पाता परन्तु बाधित हो जाने पर भी मुख्यार्थ लक्ष्यार्थ के साथ सम्बद्ध अवश्य रहता है अन्यथा 'गङ्गायां घोष:' इत्यादि वाक्यों में गङ्गा पद से उससे नितान्त असम्बद्ध यमुनातट का भी बोध होने लगेगा। इस प्रकार लक्षणा अर्पित अर्थात् कल्पित अथवा अस्वाभाविक शक्ति है, अभिधा की तरह ईश्वरोद्भावित नहीं । इस मुख्यार्थबाध के दो हेतु हैं- रूढ़ि अर्थात् प्रसिद्धि अथवा वक्ता का कोई विशिष्ट प्रयोजन। यही दो लक्षणा के मुख्य भेद हैं। रूढ़ि और प्रयोजन ये दोनों लक्षणलक्षणा और उपादानलक्षणा के रूप में दो-दो प्रकार के होते हैं। इस प्रकार लक्षणा के चार भेद हुए । इन चारों के सारोपा और साध्यवसाना के रूप में दो-दो भेद होकर आठ तथा उनके भी शुद्धा और गौणी के भेद से दो-दो प्रकार होकर सोलह भेद होते हैं। इनमें से आठ भेद रूढ़िलक्षणा तथा आठ प्रयोजनवती लक्षणा के हुए। प्रयोजनवती लक्षणा के आठ भेदों में से प्रत्येक के गूढ़ प्रयोजन और अगूढ़ प्रयोजन के रूप में दो-दो भेद होकर सोलह तथा उन सोलह भेदों के भी फल के धर्मीगत अथवा धर्मगत होने के कारण दो-दो भेद और होकर कुल बत्तीस भेद बनते हैं। इस प्रकार रूढ़िलक्षणा के आठ तथा प्रयोजनवती लक्षणा के बत्तीस भेद मिलकर कुल चालीस भेद हुए जो पद अथवा वाक्य में रहने के कारण दो-दो प्रकार के होते है, अतः कुल मिलाकर लक्षणा के अस्सी भेद बनते हैं। (2/9-18)
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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