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रोमाञ्चः
रूपकम्
154 रूपकम्-एक अर्थालङ्कार। निषेधरहित विषय (उपमेय) पर रूपित (उपमान) का आरोप रूपक कहा जाता है-रूपकं रूपितारोपो विषये निरपह्नवे। यथा-आहवे जगदुद्दण्डराजमण्डलराहवे। श्रीनृसिंहमहीपाल स्वस्त्यस्तु तव बाहवे।। इस पद्य में राजमण्डल पर चन्द्रमण्डल का तथा बाहु पर राहु का आरोप किया गया है। लक्षणवाक्य में रूपित' पद के प्रयोग से इसका परिणाम से तथा 'निरपह्नव' पद के प्रयोग से अपहृति से व्यवच्छेद प्रतिपादित होता है। चार प्रकार का परम्परित, दो प्रकार का साङ्ग तथा दो प्रकार का निरङ्गरूपक मिलाकर इसके कुल आठ भेद निष्पन्न होते हैं। (10/41)
रूपकम्-काव्य का एक भेद। अनुभूति के ऐन्द्रिय माध्यम की दृष्टि से काव्य के दो भेद किये गये हैं-दृश्य और श्रव्य-दृश्यश्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्यं द्विधा मतम्। इनमें से दृश्य काव्य को रूपक की संज्ञा दी गयी है क्योंकि सहृदय इसका आनन्द रङ्गमञ्च पर चक्षुरिन्द्रिय के संनिकर्ष से प्राप्त करता है। यहाँ अभिनय के द्वारा नट वर्णित रामादि के चरित्र को अपने में आरोपित कर उसका प्रदर्शन करता है, अतः आचार्य विश्वनाथ के अनुसार रूप का आरोप होने के कारण ही इसे रूपक कहा जाता है-रूपारोपात्तु रूपकम्। द.रू. में भी रूपक का लक्षण इसी प्रकार से किया गया है-रूपकं तत्समारोपात्। रामचन्द्रगुणचन्द्र के अनुसार इनकी रूपक संज्ञा रूपित अथवा अभिनीत होने के कारण है-रूप्यन्तेऽभिनीयन्त इति रूपकाणि नाटकादीनि। इसके दश भेदों का उल्लेख सा.द. में एक कारिका में किया गया है-नाटकमथ प्रकरणं भाणव्यायोगसमवकारडिमाः। ईहामृगाङ्कवीथ्यः प्रहसनमिति रूपकाणि दश।। (6/1, 2, 4)
रूपम्-गर्भ सन्धि का एक अङ्ग। विशेष तर्कयुक्त वचन को रूप कहते हैं-रूपं वाक्यं वितर्कवत्। इसका उदाहरण र.ना. में राजा की यह उक्ति है-मनः प्रकृत्यैव चलं, दुर्लक्ष्यं च तथापि मे। कामेनैतत्कथं विद्धं समं सर्वैः शिलीमुखैः।। (6/98)
रोमाञ्चः-एक सात्त्विक अनुभाव। हर्ष, विस्मय, भय आदि के कारण रौंगटे खड़े हो जाने को रोमाञ्च कहते हैं-हर्षाद्भुतभयादिभ्यो रोमाञ्चो रोमविक्रिया। (3/146)