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रूढ़िलक्षणा
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रूढ़िलक्षणा
रीति चार प्रकार की है - वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली और लाटी । एक प्रसिद्ध पद्य में इनका स्वरूप इस प्रकार निरूपित किया गया है - गौडी डम्बरबद्धा स्याद्वैदर्भी ललितक्रमा । पाञ्चाली मिश्रभावेन, लाटी तु मृदुभिः पदैः।। (9/1, 2)
रूढ़िलक्षणा - लक्षणा का एक भेद । रूढ़ि का अर्थ है - प्रसिद्धि । जहाँ रूढ़ि अर्थात् लोकप्रसिद्धि के कारण मुख्यार्थ का बाध होकर उससे सम्बद्ध अन्य अर्थ का ग्रहण किया जाये वहाँ रूढ़िलक्षणा होगी। इसका उदाहरण 'कलिङ्गः साहसिक : ' है । इस वाक्य में कलिङ्ग शब्द का देशविशेष रूप स्वार्थ में अन्वय सम्भव न हो पाने के कारण उससे सम्बद्ध स्वसंयुक्त पुरुष के रूप में अर्थबोध हो रहा है, अतः इसका अर्थ हुआ - कलिङ्गवास्तव्याः पुरुषा: साहसिकाः । मम्मट ने रूढ़िलक्षणा का उदाहरण 'कर्मणि कुशल : ' दिया है। 'कुशाँल्लातीति' इस व्युत्पत्ति से कुशग्राहिरूप मुख्यार्थ का प्रकृत स्थल में अन्वय न हो पाने के कारण वह विवेचकत्वादिसाधर्म्यसम्बन्ध से अपने सम्बन्धी 'दक्ष' इस अर्थ का लक्षणा से बोध कराता है परन्तु विश्वनाथादि आचार्यों का मत है कि कुशग्राहिरूप अर्थ के ही व्युत्पत्तिलभ्य होने पर भी यहाँ मुख्यार्थ 'दक्ष' ही है। शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य और प्रवृत्तिलभ्य अर्थ अलग-अलग ही होता है । प्रकृत स्थल में कुशग्राहिरूप अर्थ व्युत्पत्तिलभ्य है तथा दक्ष रूप अर्थ प्रवृत्तिलभ्य है। ये दोनों ही अर्थ मुख्य हैं। केवल व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ को ही यदि मुख्यार्थ मानें तो 'गौः शेते' में भी लक्षणा हो जायेगी क्योंकि 'गमेर्डो' इस उणादि सूत्र से गम् से डो प्रत्यय होकर गो शब्द निष्पन्न हुआ है जो गमनशील पशुविशेष के अर्थ में ही प्रयुक्त हो सकता है अतएव शयनकाल में उसे गो नहीं कहा जा सकता परन्तु सास्नादिमान् पशुविशेष गो का प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है और यही मुख्यार्थ भी है।
रूढ़िलक्षणा के दो भेद लक्षणलक्षणा और उपादानलक्षणा हैं जो सारोपा और साध्यवसाना के भेद से दो-दो प्रकार के होकर चार हो जाते हैं। ये चारों भेद शुद्ध और गौणी के रूप में दो-दो प्रकार के होने के कारण आठ हो जाते हैं तथा ये आठों भेद पदगत और वाक्यगत के रूप में दो-दो प्रकार के होने के कारण रूढ़ि लक्षणा के कुल सोलह भेद बनते हैं।