________________
_150
रसविरोधः
रसविरोधः वही होते हैं जो शब्दार्थ की शोभा बढ़ाते हुए रसादि का उपकार करते हैं परन्तु रसभावादि तो शब्दार्थ के उपकार्य हैं, अतः उन पर तो अलङ्कार का लक्षण ही घटित नहीं होता। (2) अङ्गभूत रसादि भी प्रधान रसादि के उपकारक होते ही हैं, हाँ शब्दार्थ का उपकार वे अवश्य नहीं कर पाते। अतः प्राचीन आचार्यों के द्वारा मान्य होने के कारण उन्हें अलङ्कार अवश्य मानना चाहिए। अतः इनके सम्बन्ध में अलङ्कार पद के प्रयोग को लाक्षणिक माना जा सकता है। (3) आचार्यों का एक वर्ग केवल रसादि का उपकार करने वाले तत्त्वों को ही अलङ्कार मानता है, अतः प्रधान रूप से तो रसवदादिक ही अलङ्कार हैं। रूपकादि तो अर्थादि के उपकारक होते हैं और उनके माध्यम से परम्परया रस का भी उपकार करते हैं। इसलिए रूपकादि तो अजागलस्तनन्याय से ही अलङ्कार हैं। इनमें ही अलङ्कार पद का प्रयोग लाक्षणिक है। इसके अनन्तर आचार्य विश्वनाथ ने प्रामाणिक आचार्यों के मत के रूप में अपनी ओर से निर्णय प्रस्तुत किया है। ये रसवदादि अपने व्यञ्जक शब्दार्थों से उपकृत होकर प्रधान रस के व्यञ्जक शब्दार्थों के द्वारा ही उसका उपकार करते हैं। यदि केवल रसादि का उपकार करने के कारण अलङ्कारत्व मानें तो शब्दार्थ में भी अलङ्कारत्व उपस्थित हो जायेगा। इससे उन आचार्यों का मत भी निरस्त हो जाता है जो रसादि की प्रधानता में रसवदादि अलङ्कार मानते हैं तथा उनकी अप्रधानता में उदात्त अलङ्कार क्योंकि वस्तुस्थिति यह है कि रसादि की प्रधानता में रसादिध्वनि तथा उनकी अप्रधानता में रसवदादि अलङ्कार होते हैं। उदात्त का तो फिर विषय ही नहीं बचता। (10/124)
रसविरोधः-रसों का परस्पर विरोध। विरोधी रस के विभावानुभावादिकों का वर्णन करना रस सम्बन्धी दोष माना गया है। इस दृष्टि से विभिन्न रसों के विरोधी रस इस प्रकार हैंशृङ्गार
करुण, बीभत्स, रौद्र, वीर, भयानक। हास्य
भयानक, करुण। करुण - हास्य, शृङ्गार।
हास्य, शृङ्गार, भयानक।
औद्र