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रसना
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रसवत्
रस में कार्यत्व भी उपपन्न नहीं होता क्योंकि इसे कार्य मानने पर विभावादि ही इसके कारण हो सकते हैं परन्तु उन पर कारण का कार्यपूर्ववर्तित्वरूप लक्षण घटित नहीं होता । विभावादि का ज्ञान रसानुभूति के युगपत् ही होता है । वास्तव में रस की प्रतीति विभावादिसमूहालम्बनात्मक रूप में ही होती है। अतः न तो विभावादि में कारणत्व निष्पन्न होता है, न रस में कार्यत्व । विभावादि के ज्ञान से पूर्व रस का संवेदन ही नहीं होता, अतः उस स्थिति में रस की सत्ता ही नहीं होती। इस प्रकार आत्मादि के समान वह नित्य नहीं है। रस भावी नहीं है क्योंकि वर्त्तमान में उसकी साक्षात् आनन्दात्मक अनुभूति होती है तथा वर्त्तमान भी नहीं है क्योंकि वर्त्तमान पदार्थ या तो कार्यरूप हो सकते हैं अथवा ज्ञाप्य । निर्विकल्पक ज्ञान में किसी सम्बन्ध का भान नहीं होता तथा यह निष्प्रकारक होता है परन्तु रस विभावादि से साक्षात् सम्बद्ध भी है तथा आनन्दमयता इसका एक विशिष्ट प्रकार भी है, अतः यह निर्विकल्पक ज्ञान का विषय नहीं बनता परन्तु सविकल्प ज्ञान के विषयभूत घटपटादि पदार्थों के समान इसमें शब्दवाच्यत्व भी नहीं है पुनरपि वह काव्यगत शब्दों से उत्पन्न होता ही है, अतः अपरोक्ष ( जो परोक्ष से भी पर है) भी नहीं है परन्तु उसका साक्षात्कार होता है, अतः वह परोक्ष भी नहीं है। इस प्रकार यह समस्त लौकिक पदार्थों से सर्वथा विलक्षण कोई अनिर्वचनीय ही तत्त्व है। इसके अस्तित्व में प्रमाण सहृदयों की चर्वणा ही है - प्रमाणं चर्वणैवात्र । (3/1-31)
रसना - कुछ आचार्यों द्वारा मान्य एक वृत्ति । कुछ आचार्य रस की अभिव्यक्ति के लिए रसना नाम की एक पाँचवीं वृत्ति को भी स्वीकार करते हैं- रसव्यक्तौ पुनर्वृत्तिं रसनाख्यां परे विदुः ।
रसवत् - एक अर्थालङ्कार । रस जब किसी अन्य का अङ्ग बनकर उपस्थित हो तो रसवत् अलङ्कार होता है। यथा - अयं स रसनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः। नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविप्रंसनः करः।। इस पद्य में शृङ्गार रस करुण का अङ्ग है, अतः रसवत् अलङ्कार है।
रसवदादि को अलङ्कार माना जाये या नहीं, इस सम्बन्ध में आचार्य विश्वनाथ ने पूर्वपक्ष के रूप में तीन अलग-अलग सिद्धान्तों को मानने वाले आचार्यों का मत उद्धृत किया है-- (1) कुछ आचार्यों का मत है कि अलङ्कार