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रसः 148
रसः में दन्ताघात, नखक्षत आदि आनन्द के कारण होते हैं। हरिश्चन्द्र आदि के करुण वर्णनों को पढ़कर अथवा देखकर चित्त द्रुत हो जाता है, अतएव अश्रुपातादि भी देखे जाते हैं। चित्त का यह द्रुतिभाव केवल दु:ख ही नहीं, आनन्द के उद्रेक में भी होता है। जो इस जन्म तथा पूर्वजन्म की वासना से युक्त होते हैं, वे ही रस का आस्वाद कर पाते हैं-सवासनानां सभ्यानां रसस्यास्वादनं भवेत्। निर्वासनास्तु रङ्गान्तः काष्ठकुड्याश्मसंनिभाः।।
रस सहृदय के हृदय में स्थायी रूप से स्थित भाव की अभिव्यक्ति है, अतः इसे अनुकार्य (रामादि) गत अथवा अनुकर्तृ (नटादि) गत नहीं माना जा सकता। रस को अनुकार्यगत न मानने के तीन कारण हैं-(1) सीतादि के दर्शन से उत्पन्न होने वाली रामादि की रति केवल उन्हीं में उबुद्ध होने के कारण परिमित होती है जबकि रस अनेक सहृदयों के द्वारा एक ही समय में समान रूप से अनुभव किया जाता है। (2) रामादिनिष्ठ रति लौकिक होती है जबकि रस अलौकिक है। (3) रामादिगत रति नाट्यादि में प्रदर्शन के योग्य नहीं होती क्योंकि अन्यगत रति सहृदयों के द्वारा सर्वथा अरस्य होती है जबकि रस में तो उसका अनुभव ही किया जाता है-पारिमित्याल्लौकिकत्वात्सान्तरायतया तथा अनुकार्यस्य रत्यादेरुद्बोधो न रसो भवेत्।। अनुकर्ता नटादि तो अभिनय की शिक्षा तथा अभ्यासादि के कारण रामादि के रूप का अभिनयमात्र करता है, अतः उसमें तो रस की स्थिति नहीं ही हो सकती। हाँ, काव्यार्थ की भावना के कारण सहृदयों के मध्य उसकी गणना अवश्य हो सकती है-शिक्षाभ्यासादिमात्रेण राघवादे: सरूपताम्। दर्शयन्नतको नैव रसस्यास्वादको भवेत्। काव्यार्थभावनेनायमपि सभ्यपदास्पदम्। __अलौकिक विभावादि से उत्पन्न होने वाला यह रस भी अलौकिक ही है क्योंकि न तो यह ज्ञाप्य है, न कार्य। न नित्य है, न भावी अथवा वर्तमान। न निर्विकल्प ज्ञान का विषय है न सविकल्पसंवेद्य। रस का ज्ञान न परोक्ष है, न अपरोक्ष। रस ज्ञाप्य नहीं है क्योंकि घटादि ज्ञाप्य पदार्थ कभी-कभी विद्यमान होते हुए भी आवृत आदि होने के कारण प्रतीति का विषय नहीं बनते जबकि रस की सत्ता ही उसके अनुभवगम्य होने में है।