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रसः
रसः कर तण्डुल को ओदन कह देते हैं, उसी प्रकार स्थायीभाव को भी उपचार से रस कह दिया जाता है। - यह रस अखण्ड, स्वप्रकाशानन्दचिन्मय, वेद्यान्तरस्पर्शशून्य, ब्रह्मास्वादसहोदर तथा लोकोत्तरचमत्कारप्राण होता है-सत्त्वोद्रेकादखण्डस्वप्रकाशानन्दचिन्मयः। वेद्यान्तरस्पर्शशून्यः, ब्रह्मास्वादसहोदरः। लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चित्प्रमातृभिः। स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः।।
विभावादि अनेक पदार्थ रस के अन्तर्गत आते हैं। प्रथम अवस्था में इनकी भिन्न-भिन्न प्रतीति भी होती है परन्तु ये क्रमशः एकाकार होकर रस के रूप में परिणत हो जाते हैं-विभावा अनुभावाश्च सात्त्विका व्यभिचारिणः। प्रतीयमानाः प्रथमं खण्डशो यान्त्यखण्डताम्।। जिस प्रकार प्रपानक में खाण्ड, मरिच आदि मिलकर एक आस्वादात्मक रूप में परिणत हो जाते हैं, उसी प्रकार विभावादि की परिणति रस के रूप में होती है। अपि च, रस यद्यपि आत्मस्वरूप है तथापि ज्ञान में प्रतिभासित रत्यादि के साथ अभिन्न रूप में गृहीत होता है, अतः यह वेदान्तसम्मत ब्रह्मतत्त्व के समान अखण्ड है।
__रस रत्यादिज्ञानस्वरूप ही है, अतः ज्ञान जिस प्रकार स्वप्रकाश होता है, उसी प्रकार वेदान्त की सरणि में रस भी स्वप्रकाश है। नैयायिक ज्ञान को स्वप्रकाश नहीं मानते। वहाँ ज्ञानग्रहण के हेतु के रूप में अनुव्यवसाय' की परिकल्पना है परन्तु ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आपतित होता है क्योंकि अनुव्यवसाय के ज्ञान के लिए पुनः अनुव्यवसाय और इस प्रकार इसकी एक अनन्त परम्परा प्रारम्भ हो जाती है। ज्ञान और आनन्द अभिन्न ही हैं। इस प्रकार रस का स्वरूप स्वप्रकाशानन्दरूप चित् से अभिन्न सिद्ध होता है। मयट् प्रत्यय स्वरूपार्थक है।
रसास्वाद के समय अन्य वेद्य विषय का स्पर्श तक नहीं होता, अतएव यह आनन्द ब्रह्मास्वाद के समान होता है। ब्रह्मास्वाद से यहाँ सवितर्क समाधि का ग्रहण होता है क्योंकि सवितर्क समाधि में जिस प्रकार आनन्द, अस्मिता आदि आलम्बन रहते हैं, रसास्वाद में विभावादि आलम्बन रहते हैं। निर्वितर्क समाधि तो हर प्रकार के विकल्प से शून्य होती है।
रस का प्राणतत्त्व अलौकिक चमत्कार है। चमत्कार से अभिप्राय चित्त