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यत्नः 143
यमकम् वा ग्रामे सन्ति केन प्ररोपिताः। नाथ! मत्कङ्कणन्यस्तं येषां मुक्ताफलं फलम्।। (3/126)
यत्न:-कार्य की द्वितीय अवस्था। फल की सिद्धि के लिए नायकादि का अत्यन्त त्वरायुक्त व्यापार कार्य की यत्न नामक अवस्था है-प्रयत्नस्तु फलावाप्तौ व्यापारोऽस्ति त्वरान्वितः। यथा र.ना. में "तथापि नास्त्यन्यो दर्शनोपाय इति यथा तथाऽऽलिख्य यथासमीहितं करिष्यामि'' इस उक्ति के द्वारा रत्नावली का चित्रलेखन अथवा रामचरित में समुद्रलङ्घनादि की घटनायें कार्यसिद्धि के लिए किये गये अत्यन्त त्वरायुक्त व्यापार हैं। (6/56) ___यथासङ्ख्यम्-एक अर्थालङ्कार। उद्दिष्ट पदार्थों का पुनः उसी क्रम से कथन करना यथासङ्ख्य कहलाता है-यथासङ्ख्यमनूद्देश उद्दिष्टानां क्रमेण यत्। यथा-उन्मीलन्ति नखै नीहि वहति क्षौमाञ्चलेनावृणु, क्रीडाकाननमाविशन्ति वलयक्वाणैः समुत्त्रासय। इत्थं वञ्जुलदक्षिणानिलकुहूकण्ठेषु साङ्केतिकव्याहाराः सुभग त्वदीयविरहे तस्याः सखीनां मिथः।। इस पद्य में उन्मीलन्ति, वहति तथा आविशन्ति इन तीन क्रियाओं के साथ क्रमशः वञ्जुल, दक्षिणानिल तथा कुहूकण्ठ का कर्तृत्वेन सम्बन्ध है। (10/103)
यमकम्-एक शब्दालङ्कार। अर्थ होने पर भिन्न अर्थवाले स्वरव्यञ्जनसमूह की उसी क्रम में आवृत्ति यमक कही जाती है-सत्यर्थे पृथगर्थायाः स्वरव्यञ्जनसंहतेः। क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते।। यहाँ आवृत्त दोनों पद कभी तो सार्थक होते हैं, कभी निरर्थक और कभी उनमें से एक सार्थक होता है। सा.द.कार ने इसके पादावृत्ति, पदावृत्ति, अर्धावृत्ति, श्लोकावृत्ति आदि अनेक भेदप्रभेदों की ओर सङ्केत किया है परन्तु उनका विस्तार से विवेचन नहीं किया, जैसा कि दण्डी आदि आचार्य करते रहे हैं। उदाहरण के रूप में जिस श्लोक को उद्धृत किया गया है उसमें पदों की आवृत्ति हुई है-नवपलाशपलाशवनं पुरः स्फुटपरागपरागतपङ्कजम्। मृदुलतान्तलतान्तमलोकयत्स सुरभिं सुरभिं सुमनोभरैः।। यहाँ पलाशपलाश' तथा 'सुरभिं सुरभिं' में दोनों पद सार्थक हैं परन्तु 'पराग पराग' में द्वितीय तथा 'लतान्तलतान्त' में प्रथम पद निरर्थक है। यमकादि के सन्दर्भ में 'ड-ल', 'ब-व' तथा 'ल-र' आदि वर्ण परस्पर अभिन्न समझे जाते हैं, अत: 'भुजलतां जडतामबलाजन:' आदि में भी यमकत्व अक्षुण्ण रहता है। (10/10)