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महानाटकम्
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माधुर्यम् स्कन्धकेनैतत् क्वचिद्गलितकैरपि।। अपभ्रंशनिबन्धेऽस्मिन् सर्गाः कडवकाभिधाः। तथापभ्रंशयोग्यानि छन्दांसि विविधान्यपि।। (6/303-6)
महानाटकम्-दश अङ्कों से युक्त नाटक। नाटक ही जब सभी पताकास्थानकों तथा दश अङ्कों से युक्त होता है तो उसे महानाटक कहते हैं-एतदेव यदा सर्वैः पताकास्थानकैर्युतम् । अबैश्च दशभिर्धीरा महानाटकमूचिरे।। यथा-बालरामायण। (6/252)
महावाक्यम्-वाक्यों का समूह। योग्यता, आकांक्षा और आसत्तियुक्त वाक्यों का समूह महावाक्य कहलाता है-वाक्योच्चयो महावाक्यम्। इसकी सत्ता के समर्थन में आचार्य ने एक कारिका उद्धृत की है जिसमें महावाक्य की रचना पर विचार किया गया है-स्वार्थबोधे समाप्तानामङ्गाङ्गित्वव्यपेक्षया। वाक्यानामेकवाक्यत्वं पुनः संहत्य जायते।। अर्थात् अपने-अपने अर्थ का बोध करवाकर समाप्त हुए वाक्यों का अङ्गाङ्गिभाव से पुनः मिलकर एकवाक्यत्व निष्पन्न होता है, यही महावाक्य है। इसका उदाहरण रामायण, महाभारत, रघुवंश आदि हैं। (2/2)
माधुर्यम्-नायक का सात्त्विक गुण। क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर भी नहीं घबराना माधुर्य कहलाता है-संक्षोभेष्वप्यनुद्वेगो माधुर्यं परिकीर्तितम्। (3/64) ___ माधुर्यम्-नायिका का सात्त्विक अलङ्कार। सभी अवस्थाओं में रमणीयता का नाम माधुर्य है-सर्वावस्थाविशेषेषु माधुर्यं रमणीयता। यथा-सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं, मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मी तनोति। इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी, किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।। (3/110)
माधुर्यम्-एक काव्यगुण। चित्त का द्रुतिरूप आह्लाद माधुर्य कहा जाता है-चित्तद्रवीभावो ह्लादो माधुर्यमुच्यते। माधुर्य चित्तद्रुति का कारण नहीं है क्योंकि द्रुति वास्तव में आह्लाद अथवा रसरूप ही है जो कार्य नहीं हो सकती, अत: उसका कोई कारण भी होने की सम्भावना नहीं है। यह गुण शान्त, विप्रलम्भ, करुण और सम्भोग में प्रवृद्ध रहता है। इसकी व्यञ्जक रचना टवर्ग के अभाव, पञ्चमाक्षरों से संयुक्त, लघु र् ण् से युक्त होती है। यहाँ