________________
मन्त्री
136
महाकाव्यम् मन्त्री-राजा का सहायक। अर्थों की चिन्ता में मन्त्री राजा का सहायक होता है-मन्त्री स्यादर्थचिन्तायाम्। अर्थ से अभिप्राय है-तन्त्रावापादि। तन्त्र अर्थात् राजकृत्य, उसका आवाप अर्थात् योग्यायोग्य अनुष्ठान। मन्त्री इस कार्य में राजा की सहायता करते हैं। विशेषरूप से धीरललित नायक के राज्य का भार तो मन्त्री पर ही आयत्त होता है। (3/51)
मरणम्-एक व्यभिचारीभाव। बाण आदि के लगने से जीवन का त्याग हो जाना मरण कहलाता है। इसकी अभिव्यक्ति भूमि पर गिरने आदि अनुभावों से की जाती है-शराद्यैर्मरणं जीवत्यागोऽङ्गपतनादिकृत्। यथा-राममन्मथशरेण ताडिता दु:सहेन हृदये निशाचरी। गन्धवद्रधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसतिं जगाम सा।। यहाँ राम के बाण से मारी गयी ताडका का वर्णन है। धनञ्जय ने 'मरण' का लक्षण नहीं दिया क्योंकि एक तो इसके अनुभावादि प्रसिद्ध ही हैं, दूसरे, नाटक में इसका प्रदर्शन वर्जित है। (3/161) ___महाकाव्यम्-सर्गबद्ध काव्यरचना। महाकाव्य का महत् विशेषण ही वस्तुतः उसकी वस्तु, नेता और शिल्पसम्बन्धी सङ्कल्पनाओं को परिभाषित करता है। काव्यशास्त्र के आचार्य प्रारम्भ से ही इसमें वर्णनीय विषयों का तड़े मनोयोग से विवेचन करते रहे हैं। विश्वनाथ के समक्ष इसकी एक लम्बी परम्परा विद्यमान थी। सबसे उत्तरवर्ती होने के कारण सा.द. का लक्षण अपेक्षाकृत अधिक व्यापकता अपने में समाहित किये हुए है। कोई ऐतिहासिक अथवा लोकप्रसिद्ध चरितों से युक्त कथानक पुरुषार्थचतुष्टय से सम्पन्न हो तथा उसी चतुर्वर्ग में से कोई एक उस कथा का फल भी होना चाहिए। इसका नायक कोई देवता अथवा कुलीन क्षत्रिय होता है जो धीरोदात्त नायक के गुणों से समन्वित हो अथवा एक ही सद्वंश में उत्पन्न अनेक राजा भी इसके नायक हो सकते हैं। इसका उदाहरण रघुवंश है। शृङ्गार, वीर अथवा शान्त में से कोई एक रस अङ्गी होता है, अन्य सभी रस गौण होते हैं। सर्गबद्धता तो महाकाव्य का पर्याय ही बन गयी है, इसका सीमानिर्धारण आचार्य विश्वनाथ ने "नातिस्वल्पा नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिका इह" कहकर किया है। सर्ग में प्रायः एक ही छन्द का प्रयोग होता है तथा उसकी समाप्ति पर छन्द में परिवर्तन कर दिया जाता है। वहीं भावी कथावस्तु की सूचना भी