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________________ 134 भेदः मदः भेदः-मुखसन्धि का एक अङ्ग। मिले हुओं के भेदन को भेद कहते हैं-भेदः संहतभेदनम्। यथा वे.सं. में भीम का यह कथन कि "अत एवाद्यप्रभृति भिन्नोऽहं भवद्भ्यः'। कुछ आचार्य प्रोत्साहना अर्थात् पात्र को बीज के प्रति उत्साहित करने को भेद कहते हैं। यह मत धनञ्जयादि का है। (6/80) भ्रंशः-एक नाट्यलक्षण। प्रमत्त आदि पुरुष के द्वारा अभिमत से विपरीत अर्थ का कथन भ्रंश कहा जाता है-दृप्तादीनां भवेद्बशो वाच्यादन्यतरद्वचः। यथा वे.सं. में दुर्योधन के द्वारा उक्त "सहभृत्यगणं." आदि पद्य में 'पाण्डुसुतं सुयोधनः' के स्थान पर 'पाण्डुसुतः सुयोधनम्' यह कथन। (6/191) भ्रान्तिमान्-एक अर्थालङ्कार। उपमेय में उपमान के भ्रम को, यदि वह कविप्रतिभा से उत्पन्न हुआ हो, भ्रान्तिमान् कहते हैं- साम्यादतस्मिंस्तद्बुद्धिर्भ्रान्तिमान् प्रतिभोत्थितः। इसके साथ-साथ यह भ्रम सादृश्यमूलक भी होना चाहिए। यथा-मुग्धा दुग्धधिया गवां विदधते कुम्भानधो बल्लवाः, कर्णे कैरवशङ्कया कुवलयं कुर्वन्ति कान्ता अपि। कर्कन्धूफलमुच्चिनोति शबरी मुक्ताफलाशङ्कया, सान्द्रा चान्द्रमसी न कस्य कुरुते चित्तभ्रमं चन्द्रिका।। (10/53) मञ्जिष्ठारागः-पूर्वराग का एक प्रकार। जो अत्यन्त चमक दिखाये तथा हृदय से जाये भी नहीं, वह मञ्जिष्ठाराग कहा जाता है-मञ्जिष्ठारागमाहुस्तद्यन्नापैत्यतिशोभते। (3/203) __ मतिः-एक व्यभिचारीभाव। नीतिमार्ग का अनुसरण करके अर्थ का निश्चय करना मति है। इसमें मुस्कुराहट, धैर्य, सन्तोष तथा आत्मसम्मान होता है-नीतिमार्गानुसृत्यादेरर्थनिर्धारणं मतिः। स्मेरता धृतिसन्तोषौ बहुमानश्च तद्भवाः।। यथा-असंशयं क्षत्रपरिग्रक्षमा यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः। सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणान.करणप्रवृत्तयः।। यहाँ दुष्यन्त नीतिपूर्वक विचार करके शकुन्तला से विवाह का निश्चय करता हुआ वर्णित किया गया है। (3/170) मदः-एक व्यभिचारीभाव। मद्य आदि के सेवन से उत्पन्न होने वाला संमोह और आनन्द का मिश्रण मद कहलाता है-संमोहानन्दसम्भेदो मदो
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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