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भाषाश्लेषः
भाषाश्लेषः-श्लेषालङ्कार का एक भेद। जहाँ विभिन्न भाषाओं की श्लिष्टता के कारण श्लेष की प्रतीति हो, यथा- महते सुरसंधं मे तमव समासङ्गमागमाहरणे। हर बहुसरणं तं चित्तमोहमवसर उमे सहसा।। यह पद्य संस्कृत तथा महाराष्ट्री प्राकृत दोनों में पढ़ा जा सकता है। (10/14)
भाषासमः-एक शब्दालङ्कार। जहाँ एक ही प्रकार के शब्दों के द्वारा अनेक भाषाओं में वही वाक्य बने वहाँ भाषासम अलङ्कार होता है-शब्दैरेकविधैरेव भाषासु विविधास्वपि। वाक्यं यत्र भवेत्सोऽयं भाषासम इतीष्यते।। यथा-मञ्जुलमणिमञ्जीरे कलगम्भीरे विहारसरसीतीरे। विरसासि केलिकीरे किमालि! धीरे च गन्धसारसमीरे।। यह श्लोक संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती, नागर, अपभ्रंश आदि भाषाओं में समान ही है। (10/12) . भूतविप्रलम्भः-कार्यजन्य प्रवासविप्रलम्भ का एक प्रकार। कार्यवश नायक के अन्यदेश में चले जा चुकने के उपरान्त नायिका के सन्ताप का वर्णन भूत कार्यजन्य प्रवासविप्रलम्भ है। यथा-चिन्ताभिः स्तिमितं मनः करतले लीलाकपोलस्थली, प्रत्यूषक्षणदेशपाण्डुवदनं श्वासैकखिन्नोऽधरः। अम्भः शीकरपद्मिनी किसलयै पैति तापः शमं कोऽस्याः प्रार्थितदुर्लभोऽस्ति सहते दीनां दशामीदृशीम्।। इस पद्य में विरहिणी नायिका की वियोगदशा वर्णित है। (3/213)
भूषणम्-एक नाट्यलक्षण। अलङ्कारों सहित गुणों का योग भूषण नामक लक्षण है-गुणैः सालङ्कारैर्योगस्तु भूषणम्। यथा-आक्षिपन्त्यरविन्दानि मुग्धे तव मुखश्रियम्। कोषदण्डसमग्राणां किमेषामस्ति दुष्करम्।। इस पद्य के अर्थ का उपमा में पर्यवसान होने से निदर्शना, उत्तरार्ध के द्वारा पूर्वार्ध का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास तथा श्री, कोष और दण्ड पदों के व्यर्थक होने से श्लेष अलङ्कार का माधुर्य और प्रसाद गुणों के साथ योग होने के कारण भूषण नामक लक्षण है। (6/171)
भेदः-नायिका का मानभङ्ग करने का एक उपाय। नायिका की सखी को तोड़कर अपनी ओर मिला लेने को भेद कहते हैं-भेदस्तत्सख्युपार्जनम्। (3/208)