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भरतवाक्यम्
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भाणिका पर्यन्ताश्रयिभिर्निजस्य सदृशं नाम्नः किरातैः कृतम् । कुब्जा नीचतयैव यान्ति शनकैरात्मेक्षणाशङ्किनः ।। इस पद्य में वानर के अन्तःपुर में प्रविष्ट होने पर वहाँ उपस्थित नीच पात्रों के भय का वर्णन है । यहाँ वानर आलम्बन, उसकी चेष्टायें उद्दीपन, भय, दुबकना - छिपना, झुककर चलना आदि अनुभाव तथा दीनता, शङ्का आदि व्यभिचारीभाव भयनामक चित्तवृत्ति को पुष्ट कर रहे हैं। (3/229)
भरतवाक्यम्-देखें प्रशस्तिः ।
भवन् विप्रलम्भ:- कार्यजन्य प्रवासविप्रलम्भ का एक प्रकार । नायक के कार्यवश किसी अन्य देश में चले जाने के लिए प्रस्तुत होने पर नायिका का सन्तप्त होना भवन् कार्यजन्य प्रवासविप्रलम्भ कहा जाता है। यथा- प्रस्थानं वलयैः कृतं प्रियसखैरस्रैरजस्रं गतं, धृत्या न क्षणमासितं व्यवसितं चित्तेन गन्तुं पुरः । यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमे सर्वे समं प्रस्थिताः, गन्तव्ये सति जीवित प्रियसुहृत्सार्थः किमु त्यज्यते । । यहाँ प्रिय के गमन के समय नायिका की अपने प्राणों के प्रति यह उक्ति है जो उसकी विरहदशा को भी व्यक्त करती है। (3/213)
भाण:- रूपक का एक भेद । भाण धूर्तों के चरित्र, एक अङ्क, एक ही निपुण और विद्वान् विट नायक से युक्त अनेक अवस्थाओं वाला काल्पनिक कथानक है जहाँ प्रायः भारती वृत्ति ( कहीं-कहीं कैशिकी), मुख और निर्वहण सन्धियाँ तथा दसों लास्याङ्ग होते हैं। नायक रङ्गमञ्च पर सम्बोधन, उक्तिप्रत्युक्ति, आकाशभाषित आदि के द्वारा अपनी अथवा दूसरों की अनुभूतियों को प्रकाशित करता है। उसके शौर्य और शृङ्गार के वर्णनों से वीर तथा शृङ्गार रस सूचित किये जाते हैं - भाणः स्याद्धर्त्तचरितो नानावस्थान्तरात्मकः । एकाङ्क एक एवात्र निपुणः पण्डितो विटः । रङ्गे प्रकाशयेत्स्वेनानुभूतमितरेण वा । सम्बोधनोक्तिप्रत्युक्ती कुर्यादाकाशभाषितैः । सूचयेद् वीरशृङ्गारौ शौर्यसौभाग्यवर्णनैः। तत्रेतिवृत्तमुत्पाद्यं वृत्तिः प्रायेण भारती | मुखनिर्वहणे सन्धी लास्याङ्गानि दशापि च।। इसका उदाहरण लीलामधुकर है। (6/255)
भाणिका - उपरूपक का एक भेद । इस एकाङ्की उपरूपक में वेषादि की रचना का सुन्दर विधान होता है । मुख और निर्वहण सन्धियों तथा कैशिकी