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भग्नप्रक्रमता
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भयानकः प्रेतरङ्कः करङ्कादङ्कस्थादस्थिसंस्थं स्थपुटगतमपि क्रव्यमव्यग्रमत्ति।। इस पद्य में शव तथा प्रेत आलम्बन हैं, दुर्गन्ध आदि उद्दीपन। ग्लानि आदि सञ्चारीभाव यहाँ गम्य हैं। नायक (माधव) की जुगुप्सासूचक उक्ति अनुभाव है। इन सबके द्वारा सहृदय का जुगुप्सानामक स्थायीभाव उद्बुद्ध हो रहा है। (3/230)
भग्नप्रक्रमता-एक काव्यदोष। जिस रूप से उपक्रम किया जाये, अन्त तक उसका निर्वाह न करना भग्नप्रक्रमता है। यथा-एवमुक्तो मन्त्रिमुख्यैः रावणः प्रत्यभाषत। यहाँ । वच् से प्रक्रम किया गया है, अतः प्रतिवचन भी उसी धातु से होना चाहिए। तद्यथा-एवमुक्तो मन्त्रिमुख्यैः रावणः प्रत्यवोचत। ऐसा कहने पर कथितपदत्व दोष नहीं आता क्योंकि यहाँ वचन और प्रतिवचन में उद्देश्यप्रतिनिर्देशभाव है। यह वाक्यदोष है। (7/4)
भयः-भयानक रस का स्थायीभाव। किसी रौद्र शक्ति (व्याघ्रादि) से उत्पन्न चित्त को व्याकुल करने वाला भाव भय नामक स्थायीभाव है-रौद्रशक्त्या तु जनितं चित्तवैक्लव्यदं भयम्। (3/186)
भयानक:-एक रस। भय नामक स्थायीभाव जब विभावादि से पुष्ट होकर अनुभूति का विषय बनता है तो भयानक नामक रस होता है। यह स्त्रियों तथा नीच प्रकृति के पात्रों में उत्पन्न होता है। जिससे भय उत्पन्न हो वह (सिंहादि) इसका आलम्बन होता है। उसकी घोर चेष्टायें इसकी उद्दीपक होती हैं। विवर्ण हो जाना, वाणी का गद्गद हो जाना, मूर्छा, पसीना आना, रोमाञ्च, कम्पन, दिशाओं में इधर-उधर देखने लगना आदि इसके अनुभाव हैं तथा जुगुप्सा आवेग, संमोह, सन्त्रास,ग्लानि, दीनता, शङ्का, अपस्मार, सम्भ्रान्ति, मृत्यु आदि इसके व्यभिचारीभाव हैं। इसका वर्ण कृष्ण तथा देवता काल माना गया है-भयानको भयस्थायिभावः कालाधिदैवतः। स्त्रीनीचप्रकृतिः कृष्णो मतस्तत्त्वविशारदैः। यस्मादुत्पद्यते भीतिस्तदत्रालम्बनं मतम्। चेष्टा घोरतरास्तस्य भवेदुद्दीपनं पुनः। अनुभावोऽत्र वैवर्ण्यगद्गदस्वरभाषणम्। पुलकस्वेदरोमाञ्चकम्पदिक्प्रेक्षणादयः। जुगुप्सावेगसंमोहसन्त्रासग्लानिदीनताः। शङ्कापस्मारसम्भ्रान्तिमृत्यवाद्या व्यभिचारिणः।। यथा-नष्टं वर्षवरैर्मनुष्यगणनाभावादपास्यत्रपामन्त:कञ्चुकि कञ्चुकस्य विशति त्रासादयं वामनः।