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बिब्बोक :
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बीभत्सः
सागरिका का हर्षपूर्वक यह कथन कि " कथमेषः स उदयननरेन्द्रः " प्रधान कथा के अविच्छेद का हेतु है । ( 6/48)
बिब्बोक:-नायिका का सात्त्विक अलङ्कार । अत्यन्त गर्व के साथ अभीष्ट वस्तु में भी अनादर प्रकट करना बिब्बोक कहलाता है-बिब्बोकस्त्वतिगर्वेण वस्तुनीष्टेऽप्यनादरः । यथा - यासां सत्यपि सद्गुणानुसरणे दोषानुवृत्तिः परा, याः प्राणान्वरमर्पयन्ति न पुनः सम्पूर्णदृष्टिं प्रिये । अत्यन्ताभिमतेऽपि वस्तुनि विधिर्यासां निषेधात्मकस्तास्त्रैलोक्यविलक्षणप्रकृतयो वामाः प्रसीदन्तु ते । । (3/117)
बीजम् - अर्थप्रकृति का एक भेद। फलसिद्धि का वह प्रथम हेतु जो प्रारम्भ में अत्यन्त संक्षिप्त रूप से उद्दिष्ट हो परन्तु उसका विस्तार क्रमशः अनेक रूपों में हो, उसे बीज कहते हैं- स्वल्पमात्रं समुद्दिष्टं बहुधा यद्विसर्पति। फलस्य प्रथमो हेतुर्बीजं तदभिधीयते । । लौकिक बीज के समान यह भी क्रमशः विस्तार को प्राप्त करता हुआ अन्ततः फलरूप में परिणत हो जाता है । यथा, र. ना. में अनुकूल दैव से युक्त यौगन्धरायण का व्यापार अथवा वे.सं. में द्रौपदी के केश संयमन के लिए भीमसेन के क्रोध से उपचित युधिष्ठिर का उत्साह । (6/47)
बीभत्स :- एक रस । जुगुप्सा नामक स्थायीभाव जब विभावादि से पुष्ट होकर अनुभूति का विषय बनता है तो वह बीभत्स नामक रस होता है। दुर्गन्धयुक्त माँस, रुधिर, चर्बी आदि इसके आलम्बन तथा उन्हीं में कीट आदि का सञ्चार हो जाना उद्दीपन है । थूकना, मुख फेर लेना, आँख बन्द कर लेना आदि इसके अनुभाव तथा मोह, अपस्मार, आवेग, व्याधि, मरण व्यभिचारीभाव हैं। इसका वर्ण नील तथा देवता महाकाल माना गया है - जुगुप्सास्थायिभावस्तु बीभत्सः कथ्यते रसः । नीलवर्णो महाकालदैवतोऽयमुदाहृतः । दुर्गन्धमाँसपिशितमेदांस्यालम्बनं मतम् । तत्रैव कृमिपाताद्यमुद्दीपनमुदाहृतम्। निष्ठीवनास्यवलननेत्रसङ्कोचनादयः । अनुभावास्तत्र मतास्तथा स्युर्व्यभिचारिणः । मोहोऽपस्मार आवेगो व्याधिश्च मरणादयः ।। यथा - उत्कृत्योत्कृत्य कृत्तिं प्रथममथ पृथूच्छोथभूयांसि मांसान्यंससृक्पृष्ठपिण्डाद्यवयवसुलभान्युग्रपूतीनि जग्ध्वा । आर्त्तः पर्यस्तनेत्रः प्रकटितदशन: