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प्रेयः
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बिन्दुः असूत्रधारमेकाङ्कमविष्कम्भकप्रवेशकम्। नियुद्धसम्फेटयुतं सर्ववृत्तिसमाश्रितम्। नेपथ्ये गीयते नान्दी तथा तत्र प्ररोचना।। यथा, बालिवधः। (6/290)
प्रेयः-एक अर्थालङ्कार। जहाँ भाव किसी अन्य का अङ्ग बनकर उपस्थित हो वहाँ प्रेयः अलङ्कार होता है। इसकी प्रेयसंज्ञा इसके अत्यन्त प्रिय होने के कारण है। यथा-आमीलितालसविवर्तिततारकाक्षीं, मत्कण्ठबन्धनदरश्लथबाहुवल्लीम्। प्रस्वेदवारिकणिकाचितगण्डबिम्बां, संस्मृत्य तामनिशमेति न शान्तिमन्तः।। इस पद्य में स्मरण नामक भाव विप्रलम्भ शृङ्गार का अङ्ग है। (10/124)
प्रोत्साहनम्-एक नाट्यालङ्कार। किसी को किसी कार्य में लगाने के लिए उत्साहवर्धक वाणी का प्रयोग करना प्रोत्साहन कहलाता हैप्रोत्साहनं स्यादुत्साहगिरा कस्यापि योजनम्। यथा बा.स. में ताडका का वध करने के लिए विश्वामित्र की रामचन्द्र के प्रति यह उक्ति-कालरात्रिकरालेयं स्त्रीति किं विचिकित्ससि। तज्जगत्रितयं त्रातुं तात ताडय ताडकाम्।। (6/228)
प्रोषितभर्तृका-नायिका का एक प्रकार। अनेक कार्यों में फँसकर जिसका पति परदेश चला गया हो वह कामपीडिता नायिका प्रोषितभर्तृका होती है-नानाकार्यवशाद्यस्या दूरदेशं गतः पतिः। सा मनोभवदुःखार्ता भवेत्प्रोषितभर्तृका।। यथा-तां जानीथाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं, दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम्। गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बालाम्, जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनी वान्यरूपाम्।। (6/97)
फलागमः-कार्य की अन्तिम अवस्था। जहाँ कथावस्तु के समग्र फल की प्राप्ति हो जाये, वह फलागम नामक कार्यावस्था है-सावस्था फलयोगः स्याद्यः समग्रफलोदयः। र.ना. में राजा के चक्रवर्त्तित्वरूप फलान्तर के लाभ सहित रत्नावली की प्राप्ति फलागम नामक कार्यावस्था है। (6/59) __ बिन्दुः-अर्थप्रकृति का एक भेद। अवान्तर कथा के विच्छिन्न हो जाने पर भी जो इतिवृत्त को आगे बढ़ाता तथा प्रधान कथा को जोड़े रखता है उसे बिन्दु कहते हैं-अवान्तरार्थविच्छेदे बिन्दुविच्छेदकारणम्। यथा, र.ना. में अनङ्गपूजा समाप्त हो जाने पर "उदयनस्येन्दोरिवोद्वीक्षते" आदि वाक्य सुनकर