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प्रसक्तिः
प्रसिद्धित्यागः
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प्रसक्ति:- शिल्पक का एक अङ्ग । (6/295)
प्रसङ्गः - विमर्शसन्धि का एक अङ्ग । पूज्य व्यक्तियों का वर्णन प्रसङ्ग नामक सन्ध्यङ्ग है - प्रसङ्गो गुरुकीर्त्तनम् । यथा - मृ.क. में चाण्डालों के द्वारा वध्यस्थल की ओर ले जाये जा रहे चारुदत्त के द्वारा, मखशतपरिपूतं गोत्रमुद्भाषितं यत्सदसि निबिडचैत्यब्रह्मघोषैः पुरस्तात् । मम निधनदशायां वर्त्तमानस्य पापैस्तदसदृशमनुष्यैर्घुष्यते घोषणायाम् ।। इस पद्य में वध के समय तथा यज्ञादि में गुरुजनों का नाम कीर्त्तन होने से प्रसङ्ग नामक सन्ध्यङ्ग है। (6/116)
प्रसादः - निर्वहणसन्धि का एक अङ्ग । शुश्रूषा आदि को प्रसाद कहते हैं- शुश्रूषादिः प्रसादः स्यात् । यथा वे.सं. मे भीम के द्वारा द्रौपदी के केश बाँधना। (6/130)
प्रसादः - एक गुण । अग्नि जैसे सूखे ईंधन को व्याप्त कर लेती है, उसी प्रकार जो तुरन्त चित्त में व्याप्त हो जाये उस गुण को प्रसाद कहते हैं। उसके व्यञ्जक शब्द श्रवणमात्र से ही अर्थ के बोधक हो जाते हैं - चित्तं व्याप्नोति यः क्षिप्रं शुष्केन्धनमिवानलः । स प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च।। शब्दास्तद्व्यञ्जका अर्थबोधकाः श्रुतिमात्रतः । यथा-सूचीमुखेन सकृदेव कृतव्रणस्त्वं मुक्ताकलाप लुठसि स्तनयोः प्रियाया: । बाणैः स्मरस्य शतशो विनिकृत्तमर्मा स्वप्नेऽपि तां कथमहं न विलोकयामि ।।
प्रसिद्धि: - एक नाट्यलक्षण । लोकप्रसिद्ध उत्कृष्ट साधनों से अर्थ की सिद्धि को प्रसिद्धि कहते हैं--प्रसिद्धिलोंकसिद्धार्थैरुत्कृष्टैरर्थसाधनम् । यथा वि.उ. में, सूर्याचन्द्रमसौ यस्य मातामहपितामहौ । स्वयं वृतः पतिर्द्वाभ्यामुर्वश्या च भुवा च यः । । इस पद्य के द्वारा राजा का परिचय प्रस्तुत किया गया है। (6/199)
प्रसिद्धित्याग::- एक काव्यदोष । कविसम्प्रदाय में किसी अर्थविशेष के लिए जो शब्द प्रसिद्ध है, उसका प्रयोग न करना प्रसिद्धित्याग दोष है। यथा - घोरो वारिमुचां रवः । यहाँ मेघों के शब्द के लिए रव शब्द का प्रयोग अनुचित है, इसके स्थान पर गर्जितम् ' शब्द प्रसिद्ध है। जैसा कि कहा गया