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प्रवासः
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प्रशस्तिः प्रवासः-विप्रलम्भ शृङ्गार का एक भेद। किसी कार्यवश, शापवश अथवा सम्भ्रम के कारण नायक के अन्य देश में चले जाने को 'प्रवास' कहते हैं-प्रवासो भिन्नदेशित्वं कार्याच्छापाच्च सम्भ्रमात्। इसमें अङ्गों तथा वस्त्रों में मलिनता, शिर में एक वेणी धारण करना, निश्वास, उच्छ्वास, रुदित, भूमिपात आदि होते हैं। कार्यजन्य, शापजन्य तथा सम्भ्रमजन्य इन तीन प्रकार के प्रवासों में से कार्यजन्य प्रवास क्योंकि विचारपूर्वक किया जाता है अत: यह भूत, वर्तमान अथवा भावी के भेद से पुनः तीन प्रकार का होता है। शेष दो तो तत्क्षण आपतित हो जाते हैं अत: उनमें विचार की सम्भावना ही नहीं होती। वे एक-एक प्रकार के ही हैं। - प्रवास में नायिकायें अङ्गों में असौष्ठव, ताप, पाण्डुता, कृशता, अरुचि, धैर्यहीनता, मन की शून्यता, तन्मयता, उन्माद, मूर्छा और मृति इन कामदशाओं को प्राप्त करती हैं। पूर्वराग के सम्बन्ध में भी दश कामदशायें बतायी गयी हैं। काम की ये सभी दशायें कहीं भी हो सकती हैं तथापि परम्परा का पालन करते हुए इन्हें पृथक्-पृथक् बताया गया है परन्तु इस सूची में ग्यारह दशाओं का उल्लेख है। (3/210-12)
प्रवेशक-अर्थोपक्षेपक का एक भेद। प्रवेशक में भूत अथवा भावी कथांशों की सूचना देने के लिए नीच पात्रों का प्रयोग किया जाता है। पात्रों के अनुरूप ही इसमें उक्तियाँ भी उदात्त नहीं होतीं। अतएव प्रथम अङ्क में इसका प्रयोग वर्जित है। इसकी शेष बातें विष्कम्भक के ही समान होती हैं-प्रवेशकोऽनुदात्तोक्त्या नीचपात्रप्रयोजितः। अङ्कद्वयान्तर्विज्ञेयः शेषं विष्कम्भके यथा। इसका प्रयोग वे.सं. नाटक के चतुर्थ अङ्क में राक्षसयुगल के द्वारा किया गया है। (6/38)
प्रशस्तिः-निर्वहण सन्धि का एक अङ्ग। राजा, देशादि की शान्ति की कामना प्रशस्ति कही जाती है-नृपदेशादिशान्तिस्तु प्रशस्तिरभिधीयते। यही भरतवाक्य है। यथा प्र.व. में, राजानः सुतिनर्विशेषमधुना पश्यन्तु नित्यं प्रजा, जीयासुः सदसद्विवेकपटवः सन्तो गुणग्राहिणः। शस्यस्वर्णसमृद्धयः समधिकाः सन्तु क्षमामण्डले, भूयादव्यभिचारिणी त्रिजगतो भक्तिश्च नारायणे।। उपसंहार और प्रशस्ति का क्रमशः पूर्वापर क्रम नियत है। (6/137)
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