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प्ररोचना
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प्रवर्तनम् प्ररोचना-रूपक के प्रति प्रेक्षकों को प्रवृत्त करने वाला कथन। प्रस्तूयमान रूपक में कवि, काव्यादि की प्रशंसा से प्रेक्षकों की उस प्रयोग के प्रति प्रवृत्ति को उन्मुख करना प्ररोचना कहा जाता है-उन्मुखीकारः प्रशंसातः प्ररोचना। यथा र.ना. में यह पद्य-श्रीहर्षो निपुणः कविः परिषदप्येषा गुणग्राहिणी, लोके हारि च वत्सराजचरितं नाट्ये च दक्षा वयम् वस्त्वेकैकमपीह वाञ्छितफलप्राप्तेः पदं किं पुनर्मद्भाग्योपचयादयं समुदितः सर्वो गुणानां गणः।। (6/15)
प्ररोचना-विमर्शसन्धि का एक अङ्ग। अर्थ के उपसंहार को प्रदर्शित करना प्ररोचना कहा जाता है-प्ररोचना तु विज्ञेया संहारार्थप्रदर्शिनी। यथा वे.सं. में पाञ्चालक का युधिष्ठिर के प्रति यह कथन-पूर्यन्तां सलिलेन रत्नकलशा राज्याभिषेकाय ते, कृष्णात्यन्तचिरोज्झिते तु कबरीबन्धे करोतु क्षणम्। रामे शातकुठारभासुरकरे क्षत्रद्रुमोच्छेदिनि, क्रोधान्धे च वृकोदरे परिपतत्याजौ कुतः संशयः।। इस पद्य में रण में विजय तथा युधिष्ठिर के राज्याभिषेक रूप उपसंहार को प्रदर्शित किया गया है। (6/120)
प्रलयः-एक सात्त्विक अनुभाव। अत्यन्त सुख अथवा दु:ख के कारण चेष्टाओं और ज्ञान का नष्ट हो जाना प्रलय कहा जाता है-प्रलयः सुखदुःखाभ्यां चेष्टाज्ञाननिराकृतिः। (3/146)
प्रवर्तकम्-प्रस्तावना का एक भेद। जहाँ सूत्रधार प्रवृत्त ऋतु आदि के वर्णन के द्वारा (श्लेष से ) किसी पात्र के प्रवेश की सूचना दे, उसे प्रवर्तक कहते हैं-कालं प्रवृत्तमाश्रित्य सूत्रधृग्यत्र वर्णयेत्। तदाश्रयस्य पात्रस्य प्रवेशस्तत्प्रवर्तकम्।। यथा-आसादितप्रकटनिर्मलचन्द्रहासः, प्राप्तः शरत्समय एष विशुद्धकान्तिः। उत्खाय गाढ़तमसं घनकालमुग्रं रामो दशास्यमिव सम्भृतबन्धुजीवः।। इस पद्य में शरदृतु का वर्णन करके उसी रूप में राम का प्रवेश कराया गया है। (6/21) ।
प्रवर्तनम्-एक नाट्यालङ्कार। किसी कार्य में अच्छी तरह प्रवृत्त करना प्रवर्तन कहा जाता है--प्रवर्तनं तु कार्यस्य यत्स्यात्साधु प्रवर्तनम्। यथा वे.सं. में राजा का कञ्चुकी के प्रति कथन-'कञ्चुकिन्, देवस्य देवकीनन्दनस्य बहुमानाद् वत्सस्य भीमसेनस्य विजयमङ्गलाय प्रवर्त्तन्तां तत्रोपचिताः समारम्भाः । (6/236)