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प्रयोजनवती लक्षणा
प्रयोगातिशय:- प्रस्तावना का एक भेद । यदि सूत्रधार एक प्रयोग में ही दूसरा प्रयोग प्रयुक्त करे और उसके द्वारा ही पात्र का प्रवेश हो तो प्रयोगातिशय कहा जाता है - यदि प्रयोग एकस्मिन्भूयोऽप्यन्यः प्रयुज्यते । तेन पात्रप्रवेशश्चेत् प्रयोगातिशयस्तदा ।। यथा, कु. मा. में नृत्यप्रयोग के लिए अपनी पत्नी का आह्वान करता हुआ सूत्रधार नेपथ्य में, "इत इतोऽवतरत्वार्या" " वाक्य सुनकर "कोऽयं खल्वार्याह्वानेन साहायकमिव में सम्पादयति । ( विलोक्य) कष्टमतिकरुणं वर्त्तते" इत्यादि रूप में दूसरा प्रयोग करके "सीतां वनाय परिकर्षति लक्ष्मणोऽयम् " इस प्रकार सीता और लक्ष्मण के प्रयोग को सूचित करके स्वयं रङ्गमञ्च से निकल जाता है। (6/20)
प्रयोगातिशयः
प्रयोजनवती लक्षणा-लक्षणा का एक भेद । किसी विशिष्ट प्रयोजन से जहाँ लक्षणा की जाये वह प्रयोजनवती लक्षणा होती है। 'गङ्गायां घोष: ' में गङ्गा पद का जलप्रवाह में अन्वय न हो पाने के कारण सामीप्य सम्बन्ध से तटादि का बोध होता है। इससे गङ्गातट के शैत्यपावनत्वसम्पन्न होने का प्रयोजन सिद्ध होता है। प्रयोजन का ज्ञान यद्यपि लक्षणा के अनन्तर व्यञ्जना से होता है, क्योंकि वह लक्षणा का फल है। अतः उसे कदाचित् इसका कारण नहीं माना जा सकता जो निश्चित रूप से कार्य का पूर्ववर्ती होता है तथापि जो शब्द किसी अर्थ का साक्षात् वाचक नहीं है उसका प्रयोग किसी विशिष्ट प्रयोजन को मन में रखकर ही किया जाता है, अतः कहा जा सकता है कि प्रयोजन का ज्ञान लक्षणा से पूर्व अवश्य होता है, वही लक्षणा का हेतु है।
प्रयोजनवती लक्षणा के दो भेद लक्षणलक्षणा और उपादानलक्षणा तथा उन दोनों के भी सारोपा और साध्यवसाना रूप दो भेद होने के कारण इसके चार भेद हो जाते हैं। ये चारों भेद शुद्धा और गौणी के रूप में दो-दो प्रकार के होने के कारण यह आठ प्रकार की हो जाती है। ये आठों भेद गूढ़प्रयोजन और अगूढ़प्रयोजन के रूप में दो-दो होने के कारण इसके सोलह भेद तथा उनमें भी प्रयोजन के धर्मीगत और धर्मगत होने के कारण इसके बत्तीस प्रकार हो जाते हैं जो पदगत अथवा वाक्यगत होने के कारण प्रयोजनवती लक्षणा के कुल चौंसठ भेद निष्पन्न होते हैं। (2/9-18)