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पृच्छा
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प्रकरणिका पाण्डवदारान्। यहाँ भानुमती के द्वारा पूर्वोक्त कथन का भीम के द्वारा उपदर्शन कराया गया है। (6/135)
पृच्छा-एक नाट्यलक्षण। प्रार्थनापरक वाक्यों से अर्थ का अन्वेषण करना पृच्छा कहा जाता है-अभ्यर्थनापरैर्वाक्यैः पृच्छार्थान्वेषणं मतम्। यथा वे.सं. में सुन्दरक का, “आर्याः, अपि नाम सारथिद्वितीयो दृष्टो भवद्भिर्महाराजो दुर्योधनो न वेति", इस कथन के द्वारा दुर्योधन का अन्वेषण करना। (6/198) .
प्रकरणम्-रूपक का एक भेद। नाटक से प्रकरण का भेदक आधार इसका कल्पित होना है। प्रकरण का कथानक लौकिक और कविकल्पित होता है। अङ्गी रस शृङ्गार होता है। नायक धीरप्रशान्त कोटि का कोई विप्र, अमात्य अथवा वणिक् हो सकता है जो धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति में सदा तत्पर रहता है। मृ॰क० में ब्राह्मण, मा.मा. में अमात्य तथा पु.भू. में वणिक् नायक है। नायिका कहीं कुलीन कन्या, कहीं वेश्या अथवा कहीं दोनों भी हो सकती हैं। पु.भू. में कुलीन स्त्री, र०वृ० में वेश्या तथा मृ.क. में दोनों ही नायिकायें हैं। सा.द. में इन तीन प्रकार की नायिकाओं के आधार पर ही इसके तीन भेद कल्पित किये गये हैं। इनमें से तृतीय भेद धूर्त, जुआरी, विट, चेट आदि से भी व्याप्त होता है-भवेत्प्रकरणे वृत्तं लौकिकं कविकल्पितम्। शृङ्गारोऽङ्गी नायकस्तु विप्रोऽमात्योऽथवा वणिक्। सापायधर्मकामार्थपरो धीरप्रशान्तकः। नायिका कुलजा क्वापि वेश्या क्वापि द्वयं क्वचित्। तेन भेदास्त्रयस्तस्य तत्र भेदस्तृतीयकः। कितवद्यूतकारादि विटचेटकसङ्कुलः। प्रकरण क्योंकि वस्तुतः नाटक की ही प्रकृति की एक विधा है, अतः इसमें भी वस्तु, नेता तथा रस के सम्बन्ध में अनुक्त बातें नायक के समान ही कल्पित कर ली जानी चाहिएँ-अस्य नाटकप्रकृतित्वात् शेषं नाटकवत्। (6/253-54)
प्रकरणिका-उपरूपक का एक भेद। जिसमें नायक कोई सार्थवाह तथा नायिका उसी की सजातीया हो, ऐसी नाटिका को ही प्रकरणी कहते हैं-नाटिकैव प्रकरणी सार्थवाहादिनायका। समानवंशजा नेतुर्भवेद्यत्र च नायिका।। (6/298)